स्वप्न मेरे: अक्तूबर 2008

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

ज़िंदगी का गीत

ज़िंदगी का रंग हो वो गीत गाना चाहिए
यूँ कोई भी गीत नही गुन-गुनाना चाहिए


शहर पूरा जग-मगाता है चरागों से मगर
स्याह मोड़ पर कोई दीपक जलाना चाहिए


दोस्तों की दोस्ती पर नाज तो करिये मगर
दुश्मनों को देख कर भी मुस्कुराना चाहिए


मंज़िलें को पा ही लेते हैं तमाम राहबर
रास्ते के पत्थरों को भी उठाना चाहिए


चाँद की गली मैं सूरज खो गया अभी अभी
आज रात जुगनुओं को टिम-टिमाना चाहिए


आदमी और आदमी के बीच का ये फांसला
सुलगती सी आग है उसको बुझाना चाहिए

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

भोर के सूरज

किरण के रथ पर सवार भोर के सूरज
विजय का तू कर श्रृंगार भोर के सूरज


तू स्वयं अग्नि शिखा है कर्म पथ पर
तू जो चाहे होम हो जा धर्म पथ पर
स्वयं के बल को निहार भोर के सूरज
विजय का तू कर श्रृंगार भोर के सूरज


मार्ग दुर्गम है बहुत सब जानते हैं
प्रबल झंझावात है सब मानते हैं
कंटकों से तू न हार भोर के सूरज
विजय का तू कर श्रृंगार भोर के सूरज


अग्रसर हो कर समर्पण कर समर्पण
विश्व का तू पुनः कर फ़िर मार्ग दर्शन
दूर कर ये अंधकार भोर के सूरज
विजय का तू कर श्रृंगार भोर के सूरज

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

तोड़ लाना चाँद

यूं तो साथ है तमाम लोगों का हजूम
हम सफ़र कोई तो मेरे साथ होना चाहिये


यूं तो गम में दोस्त बहुत होते हैं शरीक
गले लग कर कोई मेरे साथ रोना चाहिये

जुस्तजू, वादे-वफ़ा, अरमान दिल की ख्वाहिशें
घड़ी भर को नींद आ जाए वो कोना चाहिये


इस जहाँ में आब-दाने की नही चिंता मुझे
ओड़नी है आसमां मिट्टी बिछोना चाहिये


नफरतों की फसल बहुत काट ली सबने यहाँ
प्रेम की बाली उगे वो बीज बोना चाहिये


तुम अगर छूने चलो आकाश की बुलंदियाँ
तोड़ लाना चाँद ये मुझको खिलौना चाहिये


कोई नया खेल तुम न खेलना ऐ बादलों
तुम जो बरसो मेरा घर-आँगन भिगोना चाहिये

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

कुछ एहसास



बादल का एक टुकड़ा
अभी अभी मेरे ख़्वाब ले कर भागा है
चलो जल्दी से उसे पकड़ लें
कहीं बरसात के साथ
वो बिखर न जाये



क्षितिज के उस पार
जहाँ चाँद समुंदर में उतर आया है
चलो जल्दी से नहां लें
कंही चाँद खो न जाये
अभी अभी
एक बच्चे नें वहां
पत्थर उछाला है

कुंडलियाँ

मंदी के इस दौर में, सर पर खड़े चुनाव
नेता सारे सोच रहे, कौन सा खेलें दावं
कौन सा खेलें दावं, कौन सा झगड़ा बोयें
जनता पर भी राज करें कुर्सी न खोयें
कहे दिगम्बर नेताओं को दे दो झटका
मंदी के इस दौर मैं, पैसा ज्यों अटका

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आगजनी दंगों के बाद, नेता करते प्रतीक्षा
जांच के आयोग बिठाते, होती रहती समीक्षा
होती रहती समीक्षा, समय चुनाव का आता
जातिवाद का खेल, शुरू फ़िर से हो जाता
कहे दिगम्बर नेताओं का खेल निराला
अपनी ही माँ का आँचल छलनी कर डाला

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

नेता एक रूप अनेक

नेता - १

सर पर गाँधी टोपी
मुंह में पान
कुर्सी में अटकी
जिसकी जान

नेता - २

लोगों को
मदारी बन कर हंसाए
कुर्सी पर बैठते ही
जोंक बन जाए

नेता - ३

पांच साल तक
अंग्रेज़ी में करे बात
चुनाव पास आते हि
हिन्दी को करे याद

नेता - ४

चुनाव में
विरोधियों को निकाले गाली
चुनाव ख़त्म होते हि उनके साथ
मिल कर बजाय ताली

नेता - ५

आज के नेता
कुम्भकरण को आदर्श मानते हैं
तभी तो पाँच साल में एक बार
नींद से जागते हैं

नेता - ६

नेता और उल्लू
एक से होते हैं
दोनों हि दिन में सोते हैं
फर्क बस इतना
उल्लू पेड पर
नेता संसद में होते हैं

नेता - ७

नेता और मेढक में
एक बात सामान्य है
दोनों अपने अपने मौसम में आते
अपना अपना राग सुनाते
नेता वोट वोट
मेढक टर्र टर्र टर्राते
फर्क - मेढक साल के साल आते,
नेता पाँच साल बाद मुस्कुराते

नेता - ८

नेता और बिल्ली में
सामान्य रूप से क्या पाया
दोनों ने किसी न किसी को उल्लू बनाया
फर्क बस इतना है
नेता ने जनता का,
बिल्ली ने बंदर का माल खाया

नेता - ९

नेता जी ने
चुनाव जीतने कि करी तैयारी
खद्दर और लाठी छोड़ कर
ऐ के ४७ से कर ली यारी

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

लम्हा

अभी अभी एक लम्हे की इब्तदा हुई

जागती आँखों में कुछ ख़्वाब सुगबुगाने लगे
ये कायनात जैसे ठिठक गयी
घने कोहरे की चादर चीर कर
रौशनी मद्धम मद्धम मुस्कुराने लगी
आसमान से टूट कर कोई तारा
ज़मीन पर बिखर गया
वो लम्हा अब निखर गया

कैनवस की आड़ी तिरछी रेखाओं में
एक अक्स साकार होने लगा
वो लम्हा साँस लेने लगा
वो लम्हा साँस लेने लगा

सारी कायनात झूम उठी
पल उस पल जैसे ठहर गया
साँस जैसे थम गयी

xxxxxx......

तुमने क्यों अचानक मुझे
झंड्झोर कर उठा दिया
लम्हा मेरे हाथ से फिसल कर
वक़्त की गहराइयों में खो गया
वो कहने को तो एक लम्हा ही था
पर मेरी जिंदगी निचोड़ गया
मेरी जिंदगी निचोड़ गया

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

लुट गए हैं रंग सारी कायनात के

खो गयी है आज क्यों सूरज की धूप
लुट गए हैं रंग सारी कायनात के

जुगनुओं से दोस्ती अब हो गयी अपनी
साथ मुझ को ले चलो ऐ राही रात के

तू छावं भी है धूप भी बरसात भी
रंग हैं कितने तुम्हारी शख्सियात के

छत तेरी आँगन मेरा, रोटी तेरी चूल्हा मेरा
सिलसिले खो गए वो मुलाक़ात के

मेरी तस्वीर मैं क्यों ज़िन्दगी के रंग भरे
झूठे फ़साने बन गए छोटी सी बात के

काँटे भी चुभे फूल का मज़ा भि लिया
दर्द लिए बैठे थे हम तेरी याद के

कुछ नए तारे खिले हैं आसमान पर
जी उठे लम्हे नए ज़ज्बात के

रास्तों ने रख लिया उनका हिसाब
जुल्म मैं सहता रहा ता-उम्र आप के

बाद-ऐ-मुद्दत फूल खिले हैं यहाँ
वो हिन्दू मुसलमान हैं या और ज़ात के

इक दिन मैं तुझको आईना दिखला दूँगा
तोड़ कर दीवारों दर इस हवालात के

लहू तो बस लाल रंग का हि गिरेगा
पत्थर संभालो दोस्तों तुम अपने हाथ के

है सोचने पर भी यहाँ पहरा लगा हुआ
पंछी उड़ाते रह गया मैं ख़यालात के

फ़िर नए इक हादसे का इंतज़ार
पन्ने पलटते रह गया अख़बार के

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

अन्तिम सफर तो सब करते

आ लौट चलें बचपन में
क्या रख्खा जीवन में

दो सांसों का खेल है वरना
पञ्च तत्त्व इस तन में

लोरी कंचे लट्टू गुड़िया
कौन धड़कता मन में

धीरे धीरे रात का आँचल
उतर गया आँगन में

तेरे बोल घड़ी की टिक टिक
धड़कन धड़कन में

बरखा तो आई फ़िर भी
क्यों प्यासे सावन में

रोयेंगे चुपके चुपके
ज़ख्म रिसेंगे तन में

यूँ तो सब संगी साथी
कौन बसा जीवन में

तेरा मेरा सबका जीवन
सांसों के बंधन में

वो तो मौत झटक के आया
मरा तेरे आँगन में

मेरे सपने चुभेंगे तुमको
खेलो न मधुबन में

अन्तिम सफर तो सब करते
मिट्टी या चंदन में

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

चंद टुकड़े कांच के

लूटने वाले को मेरे घर से क्या मिल पाएगा
चंद टुकड़े कांच के और सिसकता दिल पाएगा

इक फ़ूल का इज़हार था इकरार या इन्कार था
बंद हैं अब कागजों में फूल क्या खिल पाएगा

गाँव की पगडंडियों को छोड़ कर जो आ गया
शहर की तन्हाईयो में ख़ुद को शामिल पाएगा

ओस की एक बूँद ने प्यासे के होठों को छुआ
देखना अब जुस्तुजू को होंसला मिल जाएगा

जिंदगी की कशमकश का जहर जो पीता रहा
होंसले की इन्तहा को शिव के काबिल पाएगा

अपनी कहानी

आज भी है याद मुझ को पहली मुलाकात
पलंग पर चादर बिठाते कांपते तेरे हाथ
खिलखिलाते होठ और गालों का तेरे तिल
ढूँढता ही रह गया उस दिन मैं अपना दिल
उठे उठे दाँत जैसे चाहते थे बोलना
शायद कोई राज जैसे चाहते थे खोलना

बोलना कुछ भी नही खामोश बैठना
ये करेंगे वो करेंगे घंटों सोचना
पलकें झुका बिंदी लगा सादगी सा रूपा
घर की छत पर सेकना सर्दियों की धूप
लाल साड़ी में सजी थाल पूजा का लिए
कनखियों से देखना आरती करते हुवे

कभी तो याद आते हैं सदाबहार के फूल
गर्मियों की शामें और उड़ती हुई धूल
हाथ में चप्पल उठाए, कोवलम की रेत पर
या कभी ऊटी के रस्ते चाय के हरे खेत पर
तिरुपति में कृष्ण से पहला साक्षात्कार
सामने आ जाता है लम्हा वो बार बार

गली के नुक्कड़ पे खाना गर्म कचोरी
बेसुरे सुर मैं सुनाना बच्चों को लोरी
बरसात के मौसम में फ़िर छत पे नहाना
कपड़े न बदलना कमरे मैं घुस आना
गर्मियों मैं अक्सर बिजली चले जाना
रात रात बैठ कर गाने नए गाना

रूई जैसे किक्की के गाल लाल लाल
रिड्क कर चलती हुई निक्की कि मस्त चाल
अक्सर किक्की को डांटते ही जाना बार बार
पड़ने की, कम खाने की लगाना फिर गुहार
शाम को हर रोज तेरी माँ के घर जाना
पानी भरना, घूमना फ़िर लौट कर आना

गोदी मैं ले कर बैठना किक्की को रात रात
क्या कहूँ मुझ को बहुत आते हैं वो दिन याद
मुझ को तो अब तक गुदगुदाता है हँसी वो पल
क्या तुझे भी याद है बीता हुआ कल ?
मुझ को तो अब तक याद है हर लम्हा ज़ुबानी
ये किक्की निक्की तेरी मेरी अपनी कहानी

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

रौशनी का लाल गोला खो गया है सहर से

बच गए थे चंद लम्हे ज़िंदग़ी के कहर से
साँस अब लेने लगे हैं वो तुम्हारे हुनर से

लोग कहते हैं तुम्हारी बात से झड़ते हैं फूल
रीता हुआ आँगन हूँ मैं गुज़रो कभी तो इधर से

बारिशों का कारवाँ रुकता नही है आँख से
दर्द का बादल कोई गुज़रा है मेरे शहर से

समय की पगडंडियों मैं स्वप्न बिखरे हैं मेरे
पाँव में कंकड़ चुभेंगे तुम चलोगे जिधर से

तमाम उम्र तुम महसूस करोगे मेरे अहसास को
तुम तो बस इक बीज हो मेरे उगाये शजर से

इक जमाना हो गया दीपक जलाये बैठा हूँ
कभी तो गुज़रोगे तुम मेरी राहे गुज़र से

तमाम उम्र तेरी आँख में बैठा रहूँगा
ख़्वाब देखोगे तुम सिर्फ़ मेरी नज़र से

जुगनुओं की मांग सारे शहर से है आ रही
क्या रौशनी का लाल गोला खो गया है सहर से?