स्वप्न मेरे: बातें ... खुद से ...

सोमवार, 20 अगस्त 2018

बातें ... खुद से ...


तुम नहीं होती तो कितना कुछ सोच जाता हूँ ... विपरीत बातें भी लगता है एक सी हैं ... ये सच्ची हैं या झूठी ...

चार पैग व्हिस्की के बाद सोचता हूँ 
नशा तो चाय भी दे देती 
बस तुम्हारे नाम से जो पी लेता ...

हिम्मत कर के कई बार झांकता हूँ तुम्हारी आँखों में, फिर सोचते हूँ ... सोचता क्या कह ही देता हूँ ... 

कुछ तो है जो दिखता है तुम्हारी नीली आँख में
वो बेरुखी नहीं तो प्रेम का नाम दे देना ...

फुटपाथ से गुज़रते हुए तुम्हे कुछ बोला था उस दिन, हालांकि तुम ने सुना नहीं पर कर लेतीं तो सच साबित हो जाती मेरी बात ...

दिखाना प्रेम के नाम पर
किसी ज्योतिषी को अपना हाथ
मेरा नाम का पहला अक्षर यूँ ही बता देगा ...

कितना कुछ होता रहता है, कितना कुछ नहीं भी होता ... हाँ ... बहुत कुछ जब नहीं होता, ये तो होता ही रहता है कायनात में ... 

मैंने डाले नहीं, तुमने सींचे नहीं
प्रेम के बीज अपने आप ही उग आते हैं ...

उठती हैं, मिटती हैं, फिर उठती हैं
लहरों की चाहत है पाना
प्रेम खेल रहा है मिटने मिटाने का खेल सदियों से ...

अकसर अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ ... एक तुम हो जो सुनती नहीं ... ये चाँद, ये सूरज, ये हवा भी तो नहीं सुनती ...  

धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज पहलू से मेरे  
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं ...

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