स्वप्न मेरे: लम्हा

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

लम्हा

अभी अभी एक लम्हे की इब्तदा हुई

जागती आँखों में कुछ ख़्वाब सुगबुगाने लगे
ये कायनात जैसे ठिठक गयी
घने कोहरे की चादर चीर कर
रौशनी मद्धम मद्धम मुस्कुराने लगी
आसमान से टूट कर कोई तारा
ज़मीन पर बिखर गया
वो लम्हा अब निखर गया

कैनवस की आड़ी तिरछी रेखाओं में
एक अक्स साकार होने लगा
वो लम्हा साँस लेने लगा
वो लम्हा साँस लेने लगा

सारी कायनात झूम उठी
पल उस पल जैसे ठहर गया
साँस जैसे थम गयी

xxxxxx......

तुमने क्यों अचानक मुझे
झंड्झोर कर उठा दिया
लम्हा मेरे हाथ से फिसल कर
वक़्त की गहराइयों में खो गया
वो कहने को तो एक लम्हा ही था
पर मेरी जिंदगी निचोड़ गया
मेरी जिंदगी निचोड़ गया

1 टिप्पणी:

  1. सुंदर भावसहित रचना बहुत बहुत बधाई मेरे ब्लॉग पर पधारने का धन्यबाद अपना आगमन नियमित बनाए रखे और मेरी नई रचना कैलेंडर पढने पधारें

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