स्वप्न मेरे: मानव

रविवार, 9 नवंबर 2008

मानव

सभ्यता के माप दंड छोड़ता हुवा
समाज के नियम सभी तोड़ता हुवा
कौन दिशा अग्रसर आज का मानव
समय से भी तेज़ तेज़ दौड़ता हुवा

दर्प सर्प का है किंतु विष नही
लक्ष्य तो पाना है पर कोशिश नही
उड़ रहा है दिग्भ्रमित सा गगन में
कर्मपथ से हो विरल मुख मोड़ता हुवा

ताक पर क्यों रख दिए सम्बंध सारे
क्यों युधिष्ठर की तरह निज-बंधू हारे
क्यों चला विस्मरण कर इतिहास को
नेह-बन्ध आदतन मरोड़ता हुवा

सूख गया आँख से क्यों नीर सारा
उतर गया अंग से क्यों चीर सारा
होम कर क्यों मूल्य सारे जा रहा
तिमिर के तू आवरण ओड़ता हुवा

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!

    अति सुन्दर!!

    बधाई एवं शुभकामनाऐं!!

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  2. ताक पर क्यों रख दिए सम्बंध सारे
    क्यों युधिष्ठर की तरह निज-बंधू हारे
    क्यों चला विस्मरण कर इतिहास को
    नेह-बन्ध आदतन मरोड़ता हुवा

    ....................
    वाह ! अद्भुद !
    मन मुग्ध हो गया पढ़कर.इतने सुंदर,भावपूर्ण,मनमोहक और सार्थक कविता के लिए आपका साधुवाद.
    सचमुच अपने अतीत से सिक्षा लेकर यदि व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य को संवार ले तो फ़िर क्या बात हो............

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  3. ताक पर क्यों रख दिए सम्बंध सारे
    क्यों युधिष्ठर की तरह निज-बंधू हारे
    क्यों चला विस्मरण कर इतिहास को
    नेह-बन्ध आदतन मरोड़ता हुवा

    ....................
    वाह ! अद्भुद !
    मन मुग्ध हो गया पढ़कर.इतने सुंदर,भावपूर्ण,मनमोहक और सार्थक कविता के लिए आपका साधुवाद.
    सचमुच अपने अतीत से सिक्षा लेकर यदि व्यक्ति अपने वर्तमान और भविष्य को संवार ले तो फ़िर क्या बात हो............

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  4. होम कर क्यों मूल्य सारे जा रहा
    तिमिर के तू आवरण ओड़ता हुवा

    बहुत खूब, बधाई!

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  5. बाप रे बाप....रब्बा मेरे रब्बा....मौला मेरे मौला....हाय माँ कित्ता...कित्ता...कित्ता अच्छा लिखते हो आप.....

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