स्वप्न मेरे: जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब

दिल्ली और देहरादून में खिलती हुवे सूरज के नीचे नर्म सर्दी में गुजारे कुछ पल, गौतम जी से छोटी सी हसीन सी यादगार मुलाक़ात, समीर जी (उड़नतश्तरी वाले) से फ़ोन पर हुयी बात और भी न जाने कितने खूबसूरत लम्हों को समेटे अपने छोटे से शहर दुबई में वापस आने के बाद, पेश है ये ताज़ा ग़ज़ल गौतम जी के नाम ...........


जानता हूँ रख न पायेगा कभी हिसाब
नाप कर जो रौशनी बांटेगा आफताब

यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब

जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब

हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब

यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब

पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब

घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब

23 टिप्‍पणियां:

  1. 'यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब'
    - जीवन के अनुभव बड़े से बड़े इल्म से ऊपर हैं .

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  2. दिगंबर जी ,
    आप के मित्रवत स्नेह का अनुभव आपके द्वारा कविता से पूर्व लिखे विचार उदघाटित कर ही देते है, आप जेसो की संगत का इच्छुक हूँ.
    अब आपकी गौतम जी के लिए लिखी गई कविता पर आता हूँ.
    वैसे तो कविता अपनी आत्मा से निकली आवाज़ है, किन्तु जब इसमें जिंदगी का तत्व और जुड़ जाए तो वाकई ये ईश्वरीय आनंद बन जाती है, जहा भावना बहकर अपने प्रिय को जिंदगी के खूबसूरत भाव से सराबोर कर देती है.
    आपके भाव-भावनायो को मेरा कोटि कोटि नमन.
    यूं ही खिलती रहे जिन्दगी, और आप सा प्यारा व्यक्तित्व इस फिजा में सदा महकता रहे , मेरी शुभकामनाये.

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  3. यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब

    बहुत खूब...आप गौतम जी से मिले जान कर बहुत खुशी हुई...मुझे उम्मीद है वो मुलाकात आप शायद कभी भुला नहीं पाएंगे क्यूँ की अच्छे और सच्चे इंसानों से मुलाकात विरले लोगों को ही नसीब होती है..

    नीरज

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  4. वाह जी बहुत लाजवाब. आप चुपके २ आये और चले भी गये?

    खैर अगली बार सही.

    रामराम.

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  5. "इक नज़र अज़ीम आ के दे गयी सुकून ,
    लफ्ज़-लफ्ज़ झूमता है हो के कामयाब..."

    हुज़ूर , बहुत ही उम्दा ग़ज़ल ...
    नफ़ीस शायरी , सटीक इज़हार ....
    हर शेर आपके हसीं फन की तर्जुमानी कर रहा है ....
    मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं . . . .
    और ...आपकी आमद का शुक्रिया
    मुझे प्रेरणा और प्रोत्साहन दोनों मिले . . . .
    ---मुफलिस---

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  6. यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब

    पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
    ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब

    DIGAMBAR JI , GAZAL KI TAREEF KE LIYE SHABDON KI KAMI MEHSOOS KAR RAHA HUN, ATI UTTAM, BAHUT KHOOB, WAH, BAHUT MUBARAK................

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  7. दिगंबर जी ,
    वैसे तो पूरी रचना ही अच्छी है लेकिन इन पंक्तियों की बात ही अलग है ....
    हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
    ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब .....
    बहुत खूबसूरत भावः .
    हेमंत कुमार

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  8. क्या बात है, अपने अनुभव को शब्दो में बखुब पिरोय है आपने....

    "यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब "

    बेह्तरिन लिख है आपने.....

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  9. दिगम्बर जी...अब शब्द तो सारे गुम हो गये हैं आपकी इस लाजवाब गज़ल को पढ़कर....्महज तारीफ़ करने के लिये तारीफ़ नहीं कर रहा ....
    एक तो आपकी वो विस्तृत व्योम सी फैली मुस्कुराहट की स्मृति है और वो आपके साथ की काफी,मुझे नहीं लगता कि ’बरिस्ता’ फिर कभी मुझे उतनी हसीन काफी पिला पायेगा....
    आपका करम..!!!!
    और इस गज़ल के हर शेर,गज़ब के हर शेर...एकदम नपी-तुली बहर,कहीं भी कोई कमी नहीं...बेहतरीन काफ़िये....और ख्याल तो उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़..."यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर / जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब"
    कमाल का शेर और ये भी " पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया / ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब"...खुल कर दाद

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  10. जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
    क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब

    वाह्! दिगम्बर जी, क्या खूब लिखा है.अब तो तारीफ के लिए मेरे पास कोई शब्द भी शेष नहीं रहे है. सब के सब तो पहले ही आप की कविताओं के बदले खर्च हो चुके हैं.
    आगे आपकी रचनाऎं तभी पढ पाऊंगा
    गर तारीफ के लिए नऎ शब्दों को घड पाऊंगा
    अरे वाह्! ये तो अपने आप में शेर बन गया.
    लगता है कि आपकी संगत धीरे धीरे अपना असर दिखाने लगी है.

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  11. 'यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब '
    बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल और ख्याल हमेशा नए नए से ही लाते हैं आप.
    गौतम जी से मिलना और समीर जी बात कर पाना इतने छोटे से अन्तराल में सच में
    बहुत सुखद रहा होगा.
    देखें ,एक ही देश में रहते हुए एमिरात के सभी ब्लॉगर कब मिल पाते हैं?

    शुभकामनाओं सहित.

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  12. puri gazal bahtareeb hai lekin yah sher bahut badhaiya hai
    यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब

    kabhi waqt mile to mera blog bhi dekhen

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  13. Digambar ji ,

    aapki yaatra aur is nazm ne to ranga bhiker diye hai ... wah ji wah .. maza aa gaya . kabhi hamare ghar bhi aayinga..

    aapko shivraatri ki shubkaamnaayen ..

    Maine bhi kuch likha hai @ www.poemsofvijay.blogspot.com par, pls padhiyenga aur apne comments ke dwara utsaah badhayen..

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  14. बेहतरीन ग़ज़ल है। लाजवाब शे'र है:
    यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
    महावीर शर्मा

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  15. दिल को छू लेने वाली रचना..आभार प्रस्तुति का.
    शुभकामनाएं........

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  16. वाहवा दिगंबर जी बहुत बढ़िया लेकिन आप पतली गली से निकल गये ये अच्छी बात नहीं... चलो कोई बात नहीं...

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  17. दिगंबर जी, सभी ने बहुत तारीफ़ की , मेरे लिये तो कुछ छोडा ही नही....
    घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
    रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब
    आप की रचना मै सभी लाईने एक से बढ कर एक. बहुत ही अच्छा लगा. इन्तार रहेगा, अग्ली रचना का. धन्यवाद

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  18. यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
    जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
    ... बहुत खूब, प्रभावशाली अभिव्यक्ति।

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  19. खूबसूरत शेरों से सजी गजल...बधाई

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  20. यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
    जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
    वाकई लाजवाब!

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  21. पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
    ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब
    ढाई आखर प्रेम का पढ़े जो पंडित होय ....बहुत सुन्दर !!!

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  22. हरेक शेर एक से बढ़कर एक......किसकी बात करूँ और किसे छोडूं....बस पढ़ते गए और वाह वाह करते गए.
    एक मुक्कम्मल और लाजवाब ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाइयाँ.

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  23. बहुत उम्दा ...बहुत-बहुत बधाई...

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आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है