स्वप्न मेरे: बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

वतन से वापसी, अर्श जी, अनिल जी, राजीव रंजन जी से मुलाकात की हसीन यादें समेटे, ताऊ श्री के रहस्य को जानने की कोशिश के साथ, गुरुवर पंकज जी, गौतम जी, दर्पण जी, निर्मला जी, मुफ़लिस जी से हुई बातचीत को मन में संजोए पेश है ये ग़ज़ल. आपको पसंद आए तो सार्थक है.

सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए

कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये

बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

58 टिप्‍पणियां:

  1. नास्वा जी बहुत दिन से आपकी पोस्ट का इन्तज़ार था। ये भी पता है जब देर हो जाये तो एक नायाब चीज़ देखने को मिलती है मुझे यही अफसोस रहा कि आपको नंगल नहीं दिखा सकी अगली बार जरूर इधर का प्रोग्राम बना कर आयें।रचना तो आपकी लाजवाब होती ही है। ये शेर बहुत पसण्द आये
    पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
    बहुत बहुत बधाई

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  2. Main to bas sikh raha hoon aapki rachnao se...aur jyada kuch nahi kahunga..bhav aur shabdon ka pryog sab kuch bahut hi behtareen..

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  3. लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

    बहुत खूब सही कहा ..लगता है यहाँ से बहुत सी यादे साथ ले गए आप ..बहुत पसंद आपकी यह रचना

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  4. आपके हर पंक्तियाँ एक अलग अलग भाव लिये हुये है ............
    लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये ............बेहद खुबसूरत भावो का समन्दर है .........जिसमे मै गहरे उतर गया......बहुत बहुत आभार

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  5. आपकी रचना में गांव की माटी की सोंधी महक है।
    ( Treasurer-S. T. )

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  6. बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
    बहुत करीबी रचना. प्रतीको का संयोजन बहुत सार्थक है.

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  7. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए !


    वाह ! क्या बात कही है आपने....
    भावभरी बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना...

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  8. वापसी बहुत ही सार्थक रही. एक और बेहतरीन ग़ज़ल से आपने हमें रु-ब-रु करवाया जो.
    हार्दिक आभार.

    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  9. बहुत नायाब भाव हैं इस रचना के. बार बार पढी. आपसे बात करना भी ऐसा रहा जैसे आपसे गजल सुन रहे हों? बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  10. लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये ...yado se bhari khoobsurat gazal...

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  11. ऐसा देश हैं ............................हमारा .............कोई कही भी रहे ..........उसे जान से ज़्यादा प्यारा .................हर एक पंक्ति हिन्दुस्ता गा रही हैं .................आप हमें ..सीने की बाई तरफ महसूस हो रहे हैं ............प्रणाम! ...........काश! हम भी आपसे पल दो पल कुछ खट्टा-मीठा बतियाते ..................पर का बताये हम एक लम्बर के अनाड़ी हैं ................

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  12. कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
    गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये....

    ...badhiya dig ji....

    aapko bahut padha hai.
    shayad kuch purane blogger mitr main se hain aap. isliye...
    pahi hui si lagt hai ye line wo bhi apke hi blog main, apke hi dwara !!

    is sandeh ko mitaiyen ki kya aisi line ya is jaise hi line aapne pehle bhi kabhi likhi hai?

    agar haan to is behtarin line ko fir se share karne ke liye aabhar.

    aapse na mil paane ki mazabbori ko kosta hoon,

    "phir aayegi diwali, phir se mileinge hum-tum,
    kya hua jo abki baare phone main baat karke aap bhag gaye" (bakwaas sher na? hahahaha)

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  13. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    बहुत सुन्दर रचना , हर पंक्ति सच को बयां करती हुई

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  14. दिगंबर जी आपतो बड़े भाई की तरह है आपसे मिलना वाकई एक सुखद अनुभूति थी और मेरा सौभाग्य भी...एक और बात बताऊँ की जिस टेबल पर हम बैठे थे उसी टेबल पर मैं गुरु जी से जब पहली दफा मिला था तो बैठा ये और भी मेरे लिए याद गार जैसा है ... आपसे मिलकर बातें करके आपके अनुभव बाँट कर बहुत अच्छा लगा था... वेसे मैं थोडा कम बोलता हूँ मगर आपने मुझे सहज ही रखा था...
    आपकी आज की ग़ज़ल वाकई देश की माटी को बहुत करीब लाकर रख रही है ... हर शे'र में ममत्व है... बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल कही है आपने... बधाई स्वीकारें...

    अर्श

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  15. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए
    very nice sir ......
    zindagi bahut ragin hai ye aapki gazal padh kar laga ..par ab.....

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  16. "बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
    मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये"

    नासवा जी!
    आपने बहुत दिनों बाद पोस्ट लगाई है,
    लेकिन सशक्त लिखा है।
    बहुत-बहुत बधाई!

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  17. बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
    मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

    पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए
    नासवा जी
    देश की माटी की खुसबू लिये बेहतरीन रचना

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  18. दिगंबर जी मुझे लगता है आपने हिंदी ब्लॉग जगत के लिए ये कालजयी रचना की है | किस किस पंगती की प्रशंशा करूँ, हर पंगती मैं गहरा भाव है |

    बेहतरीन अभिव्यक्ती | बहुत बहुत धन्यवाद |

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  19. सही कहा आपने और इतनी जल्दी पता भी लग गया की आजकल काग ढूंढें नहीं मिलता

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  20. बहुत सुंदर कविता कही आप ने , अब जल्दी से इस ताऊ श्री के रहस्य को भी खोल दो यह रोज लठ्ट ले कर मुझे जो बदनाम करता है कि मेरी वजह से इसे लठ्ट पडते है

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  21. लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये ||

    भई दिगम्बर जी, आपकी इस रचना के लिए तो जितनी दाद दी जाए,उतनी कम है!!
    बेहतरीन भावा!! लाजवाब रचना!!

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  22. सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
    आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए


    --जानदार और शानदार..अच्छा तो लिखते ही हो..उसकी क्या तारीफ करें..बाई डिफॉल्ट..वाह वाह!!

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  23. दिल को छूती हुई आपकी रचना...मुझे बहुत पसंद आई....और हाँ अबकी कब आ रहे हैं आप....इस बार तो मुलाकात छोटी ही रही

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  24. हर पंक्ति अपने आप में परिपूर्ण है हर शब्‍द मानो अपने ही अंदाज में कुछ कह रहा हो चाहे चूहों का भागना हो या फिर देहरी से काग का जाना हो, बहुत ही सुन्‍दर भावों के साथ इस रचना के लिये आभार.

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  25. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए
    सुंदर सुंदर सुंदर भाई वाह भाई वाह

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  26. लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये ||

    दिगम्बर जी बहूत ही सुन्दर रचना !

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  27. कविता हो या गजल, आपकी रचना हमेशा मर्म को छूती है। प्रेम व सौंदर्य के उस अगोचर सूत्र पर आपका नियंत्रण है जिसे गोचर करना सबके बस की बात नहीं। इसलिए हर चीज (जीव हो या निर्जीव ) आपकी कविता में शामिल होने के बाद सुंदर लगतee है। यह अद्‌भूत है। नमन, इस कृति-कौशल को।

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  28. aapki is rachna mein vatan ki mitti ki mahak aa rahi hai...........lajawaab.

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  29. 'बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
    मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये'

    ग़ज़ल में जिस विषय को आप ने उठाया है वह सच में चिंताजनक स्थिति bataata है..आज वह purani मिटटी की महक कहीं दूर होती जा रही है..सब कुछ आधुनिकता की बलि चढ़ रहा है.'देहरी से काग गए..' पंक्ति बहुत कुछ बयान कर रही है..
    लगता है इस बार की विसिट में देखे mulk mein hue बदलाव गहरा असर कर गए हैं..
    'बागों में झूले' ..आदि जैसी बातें बस भविष्य में बस किताबों में मिलेंगी..
    उम्दा ग़ज़ल.

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  30. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    behtareen Bhai. badhai!!

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  31. दिगम्बर जी,

    गज़ल के बहाने बदलते हुये हालातों की खूब ख़बर ली है।

    लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

    अशआर मार्मिक कहा है, देस में छूट गये लोगों कि व्यथा दिल को गमगीन कर जाती है।

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  32. दिगम्बर जी ,
    मैं तो समझ रहा था कि वतन की मिट्टी की सुगन्ध के साथ लौटेंगे पर यहाँ !!!???
    ऐसा क्या चुभा कि वतन से लौट के अनायास कह बैठे

    ``कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
    गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये

    बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
    मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

    लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

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  33. उम्दा रचना……………बहुत सुन्दर । आभार ।

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  34. गीतों की मस्ती सावन झूले सब फाग गए ...बरसों बीते सब काग गए ..
    बहुत सुन्दर कविता ...शुभकामनायें ..!!

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  35. कविता में कुछ कुछ आक्रोश झलक रहा है ! उम्मीद करता हूँ नास्वा साहब कि वतन का एक हफ्ते का आपका दौरा सुखद और मनोरंजन से परिपूर्ण रहा होगा !

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  36. इस गीत में वह कशिश है कि बार बार पढने का जी चाहता है।
    { Treasurer-S, T }

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  37. चूहों की नियति तो भागना ही है. अच्छा है वो भाग गए, हमें उनकी नहीं घर को बचाने की चिंता करनी है. चिंता करनी है कि कैसे सावन के झूले और फाग, कोमल राग और हरियाली बची रहे.

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  38. अंतर्मन तक छु गई आपकी ये रचना .वतन से आने के
    बाद के खालीपन को प्रदर्षित करती मार्मिक अभिव्यक्ति
    आशा है जल्दी जल्दी आपको पढ़ पायेगे |
    आभार

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  39. इतना ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने कि तारीफ के लिए अल्फाज़ कम पर गए! इतना कहूँगी की आपकी लेखनी को सलाम!

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  40. भई वाह, खासकर - बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये.

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  41. दिगम्बर जी, आज इसे दुबारा पढा और दुबारा कमेंट किये बिना न रह सकी। इस गीत में एक अजब सी कशिश है।
    वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

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  42. bharat ki mitti ka hi yah jaadoo he digambarji ki usaki mahak me rachi basi rachna aour poori tarah man ko prabhavit karne vale shabd dilo dimag se uthkar kagaz par rach jayaa karte he/
    anyonasti ki tippani me jo savaal he vo yakinan sochne me aataa he kintu..rachna jis pida aour jis bhaav ki aour ishara kar rahi he..vo maayane rakhti he/ mujhe bahut achhi lagi rachna/ har baar ki tarah hi kuchh alag rang liye hue/

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  43. लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये.

    बहुत सुन्दर.

    जवाब देंहटाएं
  44. नसवाजी, एक बेहतरीन ग़ज़ल के आस्वादन का अवसर देने के लिए धन्यवाद...स्मृतियाँ जब जाग उठती हैं..जन्म होता है एक ऎसी ही रचना का . नई ग़ज़ल की प्रतीक्षा है...

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  45. वाह...वाह
    बेहद खुबसूरत ग़ज़ल

    आभार


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  46. कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
    गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये

    बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
    मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

    ओहो क्या याद दिला दिया आपने ??सब खो गया अब ...

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  47. वाह खूब लिखते हैं आप बदलते वक्त को कवि ही इतनी सुंदर अभिव्यक्ति दे सकता है । बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  48. लाजवाब कर गयी ये ग़ज़ल दिग्मबर जी...

    ऐसे तो आप बार-बार यहाँ आयें कि हमें इतनी बेहतरीन ग़ज़ल सुनने को मिले!

    जवाब देंहटाएं
  49. आपकी लेखनी को मेरा नमन स्वीकार करें.

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  50. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
    बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये .
    bahut hi sundar .ek mahine se bahar rahi kal aai hoon .is wazah se aur rachana nahi dekh saki .

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  51. भावनाओं का समंदर उमड़ पडा है आप के इन लाइनों में. .... बहुत सारे दर्द छलकते हुए जान पड़ते हैं. दिगंबर जी. अच्छी रचनाओं में एक और जोड़ने हेतु बधाई.

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  52. बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
    वाह ये काग फिर लौटेंगे

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  53. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    waah !!
    apni mitti aur su-sanskriti se jurhe hone ka anokhaa aur anoothaa ehsaas liye hue aapki ye shaandaar abhvyakti
    ek ek bnd mei desh ki pehli aur aaj ki sthiti ka sundar vivran ...
    ye sb aapki hi ki qalam ka kamaal ho saktaa hai huzoor !!!
    aapko abhivaadan kehta hooN

    ---MUFLIS---

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  54. पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
    पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

    ये शे'र बहुत भाया ....ग़ज़ल हो या नज़्म दोनों आपकी कलम से बखूबी उतरते हैं ......!!

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आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है