स्वप्न मेरे: सितंबर 2014

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

समय ...

समय की ताकत को पहचानने वाले पल, बस कुछ ही आते हैं जीवन में ... आज की तारीख के बारे में सोचता हूँ तो कुछ ऐसा ही महसूस होता है ... बीतते बीतते आज माँ से बिछड़े दो साल हो ही गए ... हालांकि उस दीवार पर आज भी उनकी फोटो नहीं लगा पाया ... स्वर्गीय, श्रधांजलि जैसे शब्द उनके लिए इस्तेमाल करने से पहले घबराहट होने लगती है ... ये जरूर है की सोचते सोचते कई बार संवाद जरूर करने लगता हूँ माँ के साथ विशेष कर जब जब उसका तर्क समय की ताकत को पहचानने के लिए होता है ...


मुझे पाता है
तुम कहीं नहीं जाओगी

हालांकि जो कुछ भी तुम्हारे बस में था
उससे कहीं ज्यादा कर चुकी हो हम सब के लिए

सच मायने में जो हमारा फ़र्ज़ था
तुम तो वो भी कर चुकी हो
बिना बताए, बिना जतलाए

तुमसे बेहतर कौन जानता था हमारी क्षमता को

इसी विश्वास के बल पे कह रहा हूँ
तुम रहोगी आस पास हमेशा हमेशा के लिए

वैसे भी माँ को बच्चों से दूर
कौन रख सका है भला ... 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी ...

पत्थर मिलेंगे टूटे, तन्हाइयां मिलेंगी
मासूम खंडहरों में, परछाइयां मिलेंगी

इंसान की गली से, इंसानियत नदारद
मासूम अधखिली से, अमराइयां मिलेंगी

कुछ चूड़ियों की किरचें, कुछ आंसुओं के धब्बे
जालों से कुछ लटकती, रुस्वाइयां मिलेंगी

बाज़ार में हैं मिलते, ताली बजाने वाले
पैसे नहीं जो फैंके, जम्हाइयां मिलेंगी

पहले कहा था अपना, ईमान मत जगाना
इंसानियत के बदले, कठिनाइयां मिलेंगी

बातों के वो धनी हैं, बातों में उनकी तुमको
आकाश से भी ऊंची, ऊंचाइयां मिलेंगी

हर घर के आईने में, बस झूठ ही मिलेगा
कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी



मंगलवार, 9 सितंबर 2014

ख़बरें परोसता हुआ अखबार मैं नहीं ...

शामिल हूँ खेल में अभी बीमार मैं नहीं
हारा अनेक बार पर इस बार मैं नही

माना हजूम है तो क्या कुछ कायदे तो हैं
झंडा भले है हाथ में सरदार मैं नहीं

हूँ आज भी टिका हुआ सच के ही जोर पर
ख़बरें परोसता हुआ अखबार मैं नहीं

माना ये ज़िंदगी, ख़ुशी, ये गम तुझी से है
ये दोस्ती ही है तुम्हारा प्यार मैं नहीं

खुद चल के ही मुकाम पाना चाहता हूँ मैं
घुटनों में दर्द है तो क्या लाचार मैं नहीं

सीने में दर्द है तो है, रोने में हर्ज क्या
चुपचाप गम को सह सकूँ किरदार मैं नहीं

बुधवार, 3 सितंबर 2014

जानती है वो नज़र के वार से होता है क्या ...

हौंसला है तो उतर पतवार से होता है क्या
जीत लम्बी हो तो छोटी हार से होता है क्या

हर शिकन मिट जाएगी, ये घाव भी भर जाएगा
आज़मा के देख मेरे प्यार से होता है क्या

बूँद ना बन जाए फिर सैलाब इसको रोक लो
फिर न कहना आँसुओं की धार से होता है क्या

वक़्त रहते ही समझ लो मुख़्तसर सी बात है
खुल के बोलो प्यार है, इज़हार से होता है क्या

जीत उसकी है जो पहले वार का रखता है दम
तेज़ चाहे धार हो, तलवार से होता है क्या

थाल पूजा का लिए जो दूर से है देखती
जानती है वो नज़र के वार से होता है क्या