स्वप्न मेरे: ज़िंदगी का सेल्युलाइड ...

सोमवार, 2 मार्च 2015

ज़िंदगी का सेल्युलाइड ...

उम्र उतरती है इंसान पर, उसके चेहरे, उसके बालों पर, उसके जिस्म पर ... पर चाह कर भी नहीं उतर पाती यादों में बसी तुम्हारी तस्वीर पर, अतीत में बिखरे लम्हों पर ... मुद्दत बाद भी बूढी नहीं हो तुम बंद आँखों के पीछे ... ये इश्क है, रुका हुआ समय या माया प्रेम रचने वाले की ...

ठीक उसी समय
जब चूम रही होती हो तुम
जंगली गुलाब का फूल
चहचहाते हैं दो परिंदे पीपल की सबसे ऊंची डाल पे
रात भी रोक लेती है शाम का आँचल
पिघलने लगता है सूरज
समुन्दर की आगोश में

ठीक उसी समय
तकिये को बाहों में दबाए
मैं भी मूँद लेता हूँ अपनी आँखें
बज उठती है ठिठकी हुई पाज़ेब कायनात की
बहने लगती है हवा फिजाओं में

"ज़िंदगी के सेल्युलाइड में कैद कुछ लम्हे
कभी पुराने नहीं होते"

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