स्वप्न मेरे: फ़रवरी 2017

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

चाहत ...

कहाँ खिलते हैं फूल रेगिस्तान में ... हालांकि पेड़ हैं जो जीते हैं बरसों बरसों नमी की इंतज़ार में ... धूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है की पास आती नहीं ... कहने को रेतीला सागर साथ है ...

मैंने चाहा तेरा हर दर्द
अपनी रेत के गहरे समुन्दर में लीलना

तपती धूप के रेगिस्तान में मैंने कोशिश की
धूल के साथ उड़ कर
तुझे छूने का प्रयास किया

पर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं  

आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में

कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

उजवल भविष्य ...

उम्र के किसी एक पड़ाव पर कितना तंग करने लगती है कोई सोच ... ज़िन्दगी का चलचित्र घूमने लगता है साकार हो के ... पर क्यों ... समय रहते क्यों नहीं जाग पाते हैं हम ... आधुनिकता की दौड़ ... सब कुछ पा लेने की होड़ ... या कुछ और ...

हाथ बढ़ाया तोड़ लिया
इतने करीब तो नहीं होते तारे 

उजवल भविष्य की राह
चौबीस घंटों में अड़तालीस घंटे के सफर से नहीं मिलती
निराशा ओर घोर अन्धकार के बीच
सुकून भरी जिंदगी की चाह
मरुस्थल में मीठे पानी की तलाश से कम नहीं 

जल्दी से जल्दी समेट लेने की भूख
वक़्त को समय से पहले उतार देती है शरीर में   

तेरे बालों में समय से पहले उम्र का उतर आना 
मेरी आँखों का धुंधलापन नहीं था
वो अनुवांशिक असर भी नहीं था
क्योंकि तेरे चेहरे पर सलवटों के निशान उभर आए थे  

वो मेरी समुन्दर पी जाने की चाह थी 
जो ज़ख्म भरने का इंतज़ार भी न कर सकी
रेत को मुट्ठी में रख लेने का वहशीपन
जो समय को भी अपने साथ न रख सका 

भूल गया था की पंखों का नैसर्गिक विकास
लंबे समय तक की उड़ान का आत्म-विश्वास है

क्या समय लौटेगा मेरे पास ...