स्वप्न मेरे: कड़वा सच ...

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

कड़वा सच ...

बिन बोले, बिन कहे भी कितना कुछ कहा जा सकता है ... पर जैसा कहा क्या दूसरा वैसा ही समझता है ... क्या सच के पीछे छुपा सच समझ आता है ... शायद हाँ, शायद ना ... या शायद समझ तो आता है पर समय निकल जाने के बाद ...   

एक टक हाथ देखने के बाद तुमने कहा 
राजा बनोगे या बिखारी

वजह पूछी
तो गहरी उदासी के साथ चुप हो गईं
और मैंने ...
मैंने देखा तुम्हारी आँखों में 
ओर जुट गया सपने बुनने

भूल गया की लकीरों की जगह
हाथों का कठोर होना ज्यादा ज़रुरी है
सपनों के संसार से परे
एक हकीकत की दुनिया भी होती है
जहाँ लकीरें नहीं पत्थर की खुरदरी ज़मीन होती है

जूते पहनने के काबिल होने तक
नंगे पाँव चलना ज़रूरी होता है
गुलाब की चाह काँटों से उलझे बिना परवान नहीं चढ़ती  

ये सच है की सपनों का राजकुमार
मैं कभी का बन गया था
आसान जो था
नज़रें बंद करके सोचना भर था
पर भिखारी बने बिना भी न रह सका
(तुम्हारी तलाश में ठोकरें जो खाता रहता हूं)

सच है ... हाथ की रेखाएं बोलती हैं  ...

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