स्वप्न मेरे: शिद्दत ...

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

शिद्दत ...


तुम्हें सामने खड़ा करके बुलवाता हूँ कुछ प्रश्न तुमसे ... फिर देता हूँ जवाब खुद को, खुद के ही प्रश्नों का ... हालाँकि बेचैनी फिर भी बनी रहती है ... अजीब सी रेस्टलेसनेस ... आठों पहर ...   

पूछती हो तुम ... क्यों डूबे रहते हो यादों में ... ?
मैं ... क्या करूँ
समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
(तुम उदासी ओढ़े चुप हो जाती हो, जवाब सुनने के बाद)
...
मैं कहता हूँ ... अच्छा ऐसा करो वापस आ जाओ मेरे पास
यादें खत्म हो जाएंगी खुद-ब-खुद
(क्या कहा ... संभव नहीं ...)

मैं ... चलो ऐसा करो
पतझड़ के पत्तों की तरह
जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
मुझे भी सिखा दो

ताज़ा हवा के झोंके नहीं आते थे मेरे करीब

मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया
तमाम रोशनदान बन्द हो गए थे

सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब

रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
पर रौशनी कम नहीं होती
यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं   

मालुम है मुझे शराब ओर तुम्हारी मदहोशी का नशा 
टूटने के बाद तकलीफ देगा 

पर क्या करूँ
शिद्दत ... कमीनी कम नहीं होती
#जंगली_गुलाब

36 टिप्‍पणियां:

  1. जिस शिद्दत के साथ आप रचनाओं का ताना-बाना बुनते हैं वह काबिले तारीफ़ है। खुद ही सवाल, खुद ही जवाब, रातों में यादों के जुगनु, अत्यंत ही मोहक बन कर उभरे है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय नसवा जी।

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  2. रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
    पर रौशनी कम नहीं होती
    यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं ..
    मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति नासवा जी !

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (15-04-2020) को   "मुस्लिम समाज को सकारात्मक सोच की आवश्यकता"   ( चर्चा अंक-3672)    पर भी होगी। -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    कोरोना को घर में लॉकडाउन होकर ही हराया जा सकता है इसलिए आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  4. पतझड़ के पत्तों की तरह
    जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
    मुझे भी सिखा दो

    ये ज्ञान शायद आज तक किसी को नहीं मिला वरना कोई न कोई तो सीखा ही देता ,अदभुत सृजन ,सादर नमन आपको

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  5. पतझड़ के पत्तों की तरह
    जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
    मुझे भी सिखा दो
    वाह!!!
    अद्भुत....
    बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन।

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  6. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 15 अप्रैल 2020 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  7. पूछती हो तुम .....क्यों डूबे रहते हो यादों में ...?
    मैं ....क्या करूँ
    समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
    (तुम उदासी ओढ़े चुप हो जाती हो जवाब सुनने के बाद)
    .......
    मैं कहता हूं .....अच्छा ऐसा करो वापस आ जाओ मेरे पास
    यादें खत्म हो जायेंगी खुद-ब-खुद
    (क्या कहा ....संभव नहीं...)-------अहा !! कितनी खूबसूरत पंक्तियाँ हैं ! हाँ आदरणीय ! पंक्तियाँ ! शब्द तो मेरे जाने पहचाने हैं ! कलात्मक हाथों में पहुँच कर शब्द कितने सशक्त हो जाते हैं ! पढ़ते हुए मन भाव विभोर हो जाता है ! लगता है जैसे रंगमंच पर किसी प्रेमी जोड़े का संवाद चल रहा है !यादों में डूबना और उदासी का ओढ़ना भी कभी कभी अच्छा लगता है ! लाजवाब प्रस्तुति ! बहुत सुंदर आदरणीय।

    मैं ...चलो ऐसा करो
    पतझड़ के पत्तों की तरह
    जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
    मुझे भी सिखा दो

    ताजा हवा के झोंके नहीं आते थे मेरे करीब

    मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया तमाम रोशनदान बंद हो गए थे------ क्या बात है ! क्या बात है ! जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म ! चिंतन में गतिशीलता कल्पना लोक के संसार को कितना बढ़ा देती है ! शायद ऐसा ही होता है तड़पती रूह के आँसुओं का शब्दों में ढलना ! बेहतरीन !! बहुत खूब आदरणीय ।

    सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब

    रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
    पर रौशनी कम नहीं होती
    यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं

    मालुम है मुझे शराब और तुम्हारी मदहोशी का नशा
    टूटने के बाद तकलीफ देगा

    पर क्या करूँ
    शिद्दत.....कमीनी कम नहीं होती-------- कमाल है ! कमाल है आदरणीय ! प्यार का नशा कहाँ उतरता है ! अंधेरा खोजने वाले को जुगनू का उजाला भी खलता है ! दिन के सोने की अनुभूति रचनाकार के सिवा और कौन कर सकता है ! मैं कौन होता हूँ रचना की गहराई मापने वाला ! जब जब पढ़ता हूँ गहराई के बढ़ने का एहसास होता है !अतल गहराई में जाने की हिम्मत नहीं होती है ! मन व्याकुल हो उठता है ! लेखक के चिंतन तक पाठक का पहुँचना इतना आसान कहाँ !
    आदरणीय दिगम्बर सर ! नमन करता हूँ आप की लेखनी को ! हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।

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    1. आपकी विस्तृत चर्चा ने नए मायने दे दिए इस रचना को ... बहुत आभार आदरणीय ...

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  8. कुछ नशें जीने का मकसद देते है, साहब।
    हमेशा से आप बहुत शानदार रचते हैं।शब्दो के जादूगर हैं।पढ़कर मजा आ जाता हैं।कई बार पढ़ा,शब्द ऐसे रोल निभाते हैं कि सामने तस्वीरे बन जाती हैं।
    सादर प्रणाम।

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  9. अभिव्यक्ति कौशल का कमाल देखते ही बनता है !

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  10. पूछती हो तुम ... क्यों डूबे रहते हो यादों में ... ?
    मैं ... क्या करूँ
    समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
    वाह बेहतरीन रचना आदरणीय 👌👌

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  11. जिस्म को पुरानी यादों से कोई कैसे काट सकता हैं? बहुत सुंदर सृजन, दिगंबर भाई।

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  12. ताज़ा हवा के झोंके नहीं आते थे मेरे करीब

    मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया
    तमाम रोशनदान बन्द हो गए थे...बहुत बहुत सुन्दर रचना 

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  13. मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया
    तमाम रोशनदान बन्द हो गए थे

    सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब

    रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
    पर रौशनी कम नहीं होती
    यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं

    मालुम है मुझे शराब ओर तुम्हारी मदहोशी का नशा
    टूटने के बाद तकलीफ देगा

    पर क्या करूँ
    शिद्दत ... कमीनी कम नहीं होती
    वाह वाह बहुत खूब ,बेहतरीन रचना ,बधाई स्वीकारें ,नमस्कार ,

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  14. मन प्रसन्न हो गया शब्दों को गढ़ना आपको बड़ी खूबसूरती से आता है

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