स्वप्न मेरे: कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली

सोमवार, 24 अगस्त 2020

कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली

रात जागी तो कान में बोली
इस अँधेरे की अब चली डोली
 
बंद रहना ही इसका अच्छा था
राज़ की बात आँख ने खोली
 
दोस्ती आये तो मगर कैसे
दुश्मनी की गिरह नहीं खोली
 
तब से चिढती है धूप बादल से
नींद भर जब से दो-पहर सो ली
 
तब भी रोई थी मार के थप्पड़
आज माँ याद कर के फिर रो ली
 
खून सैनिक का तय है निकलेगा
इस तरफ उस तरफ चले गोली
 
जो भी माँगा वही मिला तुझसे
कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली 

23 टिप्‍पणियां:

  1. तब भी रोई थी मार के थप्पड़
    आज माँ याद कर के फिर रो ली
    -------------
    जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
    ....माँ की झोली में अंतहीन दुआएं और प्यार छुपा रहता है अपने लाडलों के लिए
    हर बार की तरह गागर में सागर भरने वाली दिल से निकली दिल तक पहुँचने वाली रचना

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  2. जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
    सचमुच माँ की झोली जादुई पोटली ही तो होती है अपने बच्चों के लिए...बेहतरीन और लाजवाब सृजन ।

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  3. मां जब तिलिस्म है तो बाकी सब होना ही है उससे जुडा सब तिलिस्मी । लाजवाब।

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  4. तब भी रोई थी मार के थप्पड़
    आज माँ याद कर के फिर रो ली
    वाह!!!
    जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
    सचमुच दिल से निकली दिल तक पहुँचती शानदार कृति...
    माँ की झोली के साथ आपके लेखनी भी तिलिस्मी है
    बहुत ही लाजवाब।

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  5. नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 25 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  6. वाह!दिगंबर जी ,क्या बात है ,बहुत खूब ।
    माँ की झोली तिलस्मी ही होती है ,जो चाहे ले लो ।

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  7. जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली

    वाह ! सुभानअल्लाह ! माँ के पास शायद अलादीन का चिराग रहता है
    हर सवाल का जवाब उसके पास मिलता है

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  8. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-08-2020) को   "समास अर्थात् शब्द का छोटा रूप"   (चर्चा अंक-3805)   पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

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  9. तब भी रोई थी मार के थप्पड़
    आज माँ याद कर के फिर रो ली
    वाह!! अद्भुत भाव,माँ की झोली सच में तिलिस्मी होती है इसलिए बिना कहे ही सब दे देती है। बेहद हृदयस्पर्शी रचना।

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  10. बहुत ही उम्दा ग़ज़ल । हर शेर माक़ूल कहा ....वाह ।

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  11. तब भी रोई थी मार के थप्पड़
    आज माँ याद कर के फिर रो ली
    जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
    आदरणीय दिगम्बर जी , हमेशा की तरह लाजवाब रचना | यहाँ भी माँ ही भारी पद रही सब शेरों पर | हार्दिक शुभकामनाएं| आपकी लेखनी बुलंद रहे | सादर

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  12. झोली तो आपकी भी तिलस्मी लगती है- हमेशा एक नई चीज़ निकल आती है .

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  13. वाह!लाजवाब सर प्रत्येक बंद।
    सराहना से परे मन को छूती अभिव्यक्ति।
    सादर

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  14. जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
    बिल्कुल सही और दिल को छुती पंक्तियाँ!!

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  15. बहुत सुंदर नासवा जी , शानदार असरार सीधे अंतस तक उतरते अल्फाज़।
    अभिनव सृजन।

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  16. दिल को छू गयी आपकी यह बेहतरीन ग़ज़ल । बहुत -बहुत धन्यवाद ।

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  17. माँ को बुनना आंजना हीमोग्लोबिन से बाराहा उसे निकालना नासवा साहब का ज़ोहर है हुनरमंदी है फिर एक बेहतरीन भावसम्पूर्ण रचना :
    दोस्ती आये तो मगर कैसे
    दुश्मनी की गिरह नहीं खोली
    blogpaksh.blogspot.com

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  18. बंद रहना ही इसका अच्छा था
    राज़ की बात आँख ने खोली

    दोस्ती आये तो मगर कैसे
    दुश्मनी की गिरह नहीं खोली,,,,,,,,, बहुत ख़ूब, बहुत सुंदर,आपने जो माॉं पर लिखा है वह तो अनमोल लेखनी है,आदरणीय शुभकामनाएँ ।

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  19. बहुत सुन्दर। माँ की झोली तिलस्मी होती ही है

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  20. ग़ज़ल को जहाँ आकर रुकना था वही सबसे सुंदर मुकाम था-

    जो भी माँगा वही मिला तुझसे
    कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली

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