कन्धे पे अपने भार उठाएँ ... मुझे न दें ...
ले कर गुलाब रोज़
ही आएँ …
मुझे न दें.
गैरों का साथ यूँ
ही निभाएँ … मुझे न दें.
गम ज़िन्दगी में
और भी हैं इश्क़ के सिवा,
कह दो की बार बार
सदाएँ …
मुझे न दें.
इसको खता कहें के
कहें इक नई अदा,
हुस्ने-बहार रोज़
लुटाएँ …
मुझे न दें.
सुख चैन से कटें
जो कटें जिंदगी के दिन,
लम्बी हो ज़िन्दगी
ये दुआएँ …
मुझे न दें.
शायद में उनके
इश्क़ के काबिल नहीं रहा,
आखों से वो शराब
पिलाएँ ... मुझे न दें.
खेलें वो खेल
इश्क़ में पर दर्द हो मुझे,
उनका है ये गुनाह
सज़ाएँ ... मुझे न दें.
उम्मीद दोस्तों
से नहीं थी, मगर था सच,
हिस्सा मेरा वो
रोज़ उठाएँ ... मुझे न दें.
खुशबू भरे वो ख़त
जो मेरे नाम थे लिखे,
खिड़की से रोज़ रोज़
उड़ाएँ ... मुझे न दें.
देखा है ज़िंदगी
में पिता जी को उम्र भर,
कन्धे पे अपने
भार उठाएँ ... मुझे न दें.
बहुत उम्दा।
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब।
खुशबू भरे वो ख़त जो मेरे नाम थे लिखे,
जवाब देंहटाएंखिड़की से रोज़ रोज़ उड़ाएँ ... मुझे न दें.
आज तो कुछ अलग ही मूड है ग़ज़ल का ...
देखा है ज़िंदगी में पिता जी को उम्र भर,
कन्धे पे अपने भार उठाएँ ... मुझे न दें.
ये शेर आज के सच को कहता हुआ ....
बहुत मर्मस्पर्शी ग़ज़ल .
एक नायब रचना आदरणीय दिगम्बर जी जिसके सभी शेर ह्रदय को स्पर्श का निकल गये | यूँ तो हर शेर की अपनी कीमत है पर एक अनमोल शेर में मुझे अपने आदरणीय ससुर जी की छवि हुबहू नज़र आई जिन्हें हमेशा मैंने इसी रूप में देखा है जैसा आपने लिखा --
जवाब देंहटाएंदेखा है ज़िंदगी में पिता जी को उम्र भर,
कन्धे पे अपने भार उठाएँ ... मुझे न दें.
सच में पिता ऐसे ही होते हैं | मेरे ससुर जी आज भी उम्र के पिचहत्तरवें साल में भी समस्त परिवार की जिम्मेवारी को बड़ी आत्मीयता से संभाल रहे हैं और हमेशा हर कार्य खुद करने को तत्पर रहते हैं ताकि बच्चे निश्चिन्त रहें | आभार कहूँ तो पर्याप्त ना होगा | हार्दिक शुभकामनाएं इस अमूल्य रचना के लिए | सादर
वाह-वाह...।
जवाब देंहटाएंपूरी की पूरी वेदना ग़ज़ल के अशआरों में उडेल दी...
आपने तो।
बहुत बहुत सुन्दर अमूल्य गजल । बहुत शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 08 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 09-04-2021) को
" वोल्गा से गंगा" (चर्चा अंक- 4031) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
वाह ! कभी शिकायत, कभी चाहत तो कभी आदत से की गयी इल्तजा, पर शब्द हर बार वही.. मुझे न दें, एक बेहद उम्दा रचना !
जवाब देंहटाएंइतनी बेरुखी क्यों ! पता तो कर लें
जवाब देंहटाएंदेखा है ज़िंदगी में पिता जी को उम्र भर,
जवाब देंहटाएंकन्धे पे अपने भार उठाएँ ... मुझे न दें.---बहुत खूबसूरत पंक्तियां हैं
वाह!दिगंबर जी ,हर एक शेर लाजवाब ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंज़िंदगी का भार तो चाहते ना चाहते हुए भी सभी को उठाना ही पड़ता है,सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहर शेर बहुत ही लाजबाब है, दिगम्बर भाई।
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार सर।
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली भाव एवं नवीनतम प्रयोग।
सादर।
वाह बेहतरीन 👌👌
जवाब देंहटाएंदेखा है ज़िंदगी में पिता जी को उम्र भर,
जवाब देंहटाएंकन्धे पे अपने भार उठाएँ ... मुझे न दें.
ये मुझे न देना भी कितना खटकता है न.. कोई प्यार से नहीं दे रहा तो उसकी परवाह में तो कोई नफरत से न दें तो खुद के लिए...
बहुत ही लाजवाब हमेशा की तरह...
वाह!!!
एक बिल्कुल अनोखा और नया अंदाज़ आपका!! वाह...!!!
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