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मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
ये कायनात इश्क में डूबी हुई मिली
सागर की बाज़ुओं में उतरती हुई मिली.
सोमवार, 17 अगस्त 2020
एक बुग्नी फूल सूखा डायरी ...
धूप कहती है निकल के दें … न दें
रौशनी हर घर को चल के दें … न दें
साहूकारों की निगाहें कह रहीं
दाम पूरे इस फसल के दें … न दें
तय अँधेरे में तुम्हें करना है अब
जुगनुओं का साथ जल के दें … न दें
बात वो सच की करेगा सोच लो
आइना उनको बदल के दें … न दें
फैंसला लहरों को अब करना है ये
साथ किश्ती का उछल के दे ... न दें
सच है मंज़िल पर गलत है रास्ता
रास्ता रस्ता बदल के दे ... न दें
एक बुग्नी, फूल सूखा, डायरी
सब खज़ाने हैं ये कल के दे ... न दें
सोमवार, 27 जुलाई 2020
वक़्त की साँकल में अटका इक दुपट्टा रह गया
आँसुओं से
तर-ब-तर मासूम कन्धा रह गया
वक़्त की साँकल में
अटका इक दुपट्टा रह गया
मिल गया जो उसकी माया, जो
हुआ उसका करम
पा लिया तुझको तो
सब अपना पराया रह गया
आदतन बोला नहीं
मैं, रह गईं खामोश तुम
झूठ सच के बीच
उलझा एक लम्हा रह गया
छू के तुझको कुछ
कहा तितली ने जिसके कान में
इश्क़ में डूबा
हुआ वाहिद वो पत्ता रह गया
आपको देखा अचानक
बज उठी सीटी मेरी
उम्र तो बढ़ती रही
पर दिल में बच्चा रह गया
कर भी देता मैं
मुकम्मल शेर तेरे हुस्न पर
क्या कहूँ लट से
उलझ कर एक मिसरा रह गया
मैं भी कुछ जल्दी
में था, रुकने को तुम राज़ी न थीं
शाम का नीला समुन्दर
यूँ ही तन्हा रह गया
बोलना, बातें,
बहस, तकरार, झगड़ा, गुफ्तगू
इश्क़ की इस
दिल्लगी में अस्ल मुद्दा रह गया
कुछ कहा नज़रों ने, कुछ होठों ने, सच किसको कहूँ
यूँ शराफत सादगी
में पिस के बंदा रह गया
गुरुवार, 23 जुलाई 2020
हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं ...
उदासी
से घिरी तन्हा छते हैं
कई
किस्से यहाँ के घूरते हैं
परिंदों के परों पर घूमते हैं
हम अपने घर को अकसर ढूँढ़ते हैं
नहीं है इश्क पतझड़ तो यहाँ क्यों
सभी के दिल हमेशा टूटते हैं
मेरा स्वेटर कहाँ तुम ले गई थीं
तुम्हारी शाल से हम पूछते हैं
नए
रिश्तों में कितनी भी हो गर्मी
कहाँ
रिश्ते पुराने छूटते हैं
कभी तो राख़ हो जाएँगी यादें
तुम्हे सिगरेट समझ कर फूंकते हैं
लिखे क्यों जो नहीं फिर भेजने थे
दराज़ों में पड़े ख़त सोचते हैं
लगी है आज भी उन पर लिपिस्टिक
हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं
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हिन्दी गज़ल
सोमवार, 20 जुलाई 2020
हमको पढ़ते हैं कई लोग सुर्ख़ियों जैसे
ज़िन्दगी में हैं
कई लोग आग हों जैसे
हर अँधेरे में सुलगते
हैं जुगनुओं जैसे
सोच लेता हूँ कई बार बादलों जैसे
भीग लेने दूं किसी छत को बारिशों जैसे
बैठे बैठे भी कई
बार चौंक जाता हूँ
दिल में रहते हैं
कई लोग हादसों जैसे
हम सफ़र बन के
मेरे साथ वो नहीं तो क्या
मील दर मील खड़े
हैं वो पत्थरों जैसे
दिल के गहरे में
कई दर्द रोज़ उठते हैं
भूल जाता हूँ में
हर बार मुश्किलों जैसे
लोग ऐसे भी मेरी
ज़िन्दगी में आए हैं
खिलते रहते हैं
हमेशा जो तितलियों जैसे
सरसरी सी ही नज़र
डालना कभी हम पर
हमको पढ़ते हैं कई
लोग सुर्ख़ियों जैसे
सोमवार, 13 जुलाई 2020
गई है उठ के तकिये से अभी जो रात बीती है ...
कहीं खामोश है कंगन,
कहीं पाज़ेब टूटी है
सिसकता है कहीं तकिया,
कहीं पे रात रूठी है
अटक के रह गई है नींद पलकों के मुहाने पर
सुबह की याद में बहकी हुई इक शाम डूबी है
यहाँ कुछ देर बैठो चाय की दो चुस्कियाँ ले लो
यहीं से प्रेम की ऐ. बी. सी. पहली बार सीखी है
न क्यों सब इश्क़ के बीमार मिल कर के बहा आएँ
इसी सिन्दूर ने तो आशिकों की जान लूटी है
उसे भी एड़ियों में इश्क़ का काँटा चुभा होगा
मेरी भी इश्क़ की पगडंडियों पे बाँह छूटी है
धुंवे में अक्स तेरा और भी गहरा नज़र आए
किसी ने साथ सिगरेट के तुम्हारी याद फूँकी है
झमाँ झम बूँद बरसी, और बरसी, रात भर बरसी
मगर इस प्रेम की छत आज भी बरसों से सूखी है
बहाने से बुला लाया जुनूने इश्क़ भी तुमको
खबर सर टूटने की सच कहूँ बिलकुल ही झूठी है
किसी की बाजुओं में सो न जाए थक के ये फिर से
गई है उठ के तकिये से अभी जो रात बीती है
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सोमवार, 6 जुलाई 2020
इक पुरानी रुकी घड़ी हो क्या ...
यूँ ही मुझको सता रही हो क्या
तुम कहीं रूठ कर चली हो क्या
उसकी यादें हैं पूछती अक्सर
मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या
मुद्दतों से तलाश है जारी
ज़िन्दगी मुझसे अजनबी हो क्या
वक़्त ने पूछ ही लिया मुझसे
बूढ़े बापू की तुम छड़ी हो क्या
तुमको महसूस कर रहा हूँ मैं
माँ कहीं आस पास ही हो क्या
दर्द से पूछने लगी खुशियाँ
एक लम्हा था अब सदी हो क्या
मुझसे औलाद पूछती है अब
इक पुरानी रुकी घड़ी हो क्या(तरही गज़ल)
सोमवार, 29 जून 2020
चन्द यादों के कुछ करेले हैं ...
गम के किस्से,
ख़ुशी के ठेले हैं
ज़िन्दगी में
बहुत झमेले हैं
वक़्त का भी अजीब आलम है
कल थी तन्हाई आज मेले हैं
बस इसी बात से तसल्ली है
चाँद सूरज सभी अकेले हैं
भूल जाते हैं सब बड़े हो कर
किसके हाथों में रोज़ खेले हैं
चुप से
बैठे हैं आस्तीनों में
नाग हैं
या के उसके चेले हैं
टूट जाते हैं गम की आँधी से
लोग मिट्टी के कच्चे ढेले हैं
कितने मीठे हैं आज ये जाना
चन्द यादों के कुछ करेले हैं
खोल के
ज़ख्म सब दिखा देंगे
मत कहो
तुमने दर्द झेले हैं
सोमवार, 4 नवंबर 2019
जीवन आपा-धापी “एजिटे-शन” है ...
ठँडी मीठी छाँव
कभी तीखा “सन” है
जीवन आपा-धापी
“एजिटे-शन” है
इश्क़ हुआ तो बस
झींगालाला होगा
“माइंड” में कुछ
ऐसा ही “इम्प्रे-शन” है
मिलने पर तो इतने
तल्ख़ नहीं लगते
पर “सोशल” मंचों
पर दिखती “टेन्शन” है
बतलाता है अब
“इस्टेटस” “सेल्फी” का
खुश है बच्चा या कोई
“डिप्रे-शन” है
नव नूतन चन्दन
वंदन है अभिनन्दन
विजय पर्व है जब
जीता अभिनन्दन है
आधा खाली है तो आधा भरा हुआ
खाली का बस
खाली-पीली कृन्दन है
“ट्वीटर”
“इन्स्टाग्राम” “फेसबुक” है गुरुकुल
ज्ञान पेलता गहरा
अविरल चिंतन है
कभी “डिसीसिव” और
कभी है “इन्क्लूसिव”
राजनीति में
“टाइम” “ओबज़र्वे-शन” है
आशिक, उल्लू, शोदा, पागल, “लवर”
गधा
एक ही शब्द समूह “महा-गठबंधन”
है
बुधवार, 25 सितंबर 2019
माँ ...
पलट के आज फिर आ गई २५ सितम्बर ... वैस तो तू आस-पास ही होती है पर फिर भी आज
के दिन तू विशेष आती है ... माँ जो है मेरी ... पिछले सात सालों में, मैं जरूर कुछ
बूढा हुआ पर तू वैसे ही है जैसी छोड़ के गई थी ... कुछ लिखना तो बस बहाना है मिल
बैठ के तेरी बातें करने का ... तेरी बातों को याद करने का ...
सारी सारी रात नहीं फिर सोई है
पीट के मुझको खुद भी अम्मा रोई है
गुस्से में भी मुझसे प्यार झलकता था
तेरे जैसी दुनिया में ना कोई है
सपने पूरे कैसे हों ये सिखा दिया
अब किन सपनों में अम्मा तू खोई है
हर मुश्किल लम्हे को हँस के जी लेना
गज़ब सी बूटी मन में तूने बोई है
शक्लो-सूरत, हाड़-मास, तन, हर शक्ति
धडकन तुझसे, तूने साँस पिरोई है
बचपन से अब तक वो स्वाद नहीं जाता
चलती फिरती अम्मा एक रसोई है
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Mother
सोमवार, 24 जून 2019
अभी जगजीत की गजलें सुनेंगे ...
अंधेरों को मिलेंगे आज ठेंगे
ये दीपक रात भर
यूँ ही जलेंगे
जो तोड़े पेड़ से
अमरुद मिल कर
दरख्तों से कई
लम्हे गिरेंगे
किसी के होंठ को
तितली ने चूमा
किसी के गाल अब
यूँ ही खिलेंगे
गए जो उस हवेली
पर यकीनन
दीवारों से कई
किस्से झरेंगे
समोसे, चाय, चटनी, ब्रेड
पकोड़ा
न होंगे यार तो
क्या खा सकेंगे
न जाना “पालिका
बाज़ार” तन्हा
किसी की याद के
बादल घिरेंगे
न हो तो नेट पे
बैंठे ढूंढ लें फिर
पुराने यार अब
यूँ ही मिलेंगे
मुड़ी सी नज़्म दो
कानों के बुँदे
किसी के पर्स में
कब तक छुपेंगे
अभी तो रात छज्जे
पे खड़ी है
अभी जगजीत की गजलें सुनेंगे
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स्वप्न मेरे,
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हिंदी गज़ल
सोमवार, 17 जून 2019
आसमानी पंछियों को भूल जा ...
धूप की बैसाखियों
को भूल जा
दिल में हिम्मत
रख दियों को भूल जा
व्यर्थ की
नौटंकियों को भूल जा
मीडिया की
सुर्ख़ियों को भूल जा
उस तरफ जाती हैं तो
आती नहीं
इस नदी की
कश्तियों को भूल जा
टिमटिमा कर फिर
नज़र आते नहीं
रास्ते के
जुगनुओं को भूल जा
हो गईं तो हो गईं
ले ले सबक
जिंदगी की
गलतियों को भूल जा
याद रख्खोगे तो
मांगोगे सबब
कर के सारी
नेकियों को भूल जा
रंग फूलों के
चुरा लेती हैं ये
इस चमन की
तितलियों को भूल जा
टूट कर आवाज़ करती
हैं बहुत
तू खिजाँ की
पत्तियों को भूल जा
इस शहर से उस शहर
कितने शहर
आसमानी पंछियों
को भूल जा
लेबल:
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नदी,
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