सच के लिए हर किसी से लड़ गया. नाम का झन्डा उसी का गढ़ गया. ठीक है मिलती रहे जो दूर से, धूप में ज्यादा टिका जो सड़ गया. हाथ बढ़ाया न शब्द दो कहे, मार के ठोकर उसे वो बढ़ गया. प्रेम के नगमों से थकेगा नहीं, आप का जादू कभी जो चढ़ गया. होश ठिकाने पे आ गए सभी, वक़्त तमाचा कभी जो जड़ गया. बाल पके, एड़ियाँ भी घिस गईं, कोर्ट से पाला कभी जो पड़ गया. जो न सितम मौसमों के सह सका, फूल कभी पत्तियों सा झड़ गया. तन्त्र की हिलने लगेंगी कुर्सियाँ, आम सा ये आदमी जो अड़ गया.