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मंगलवार, 29 दिसंबर 2020
कभी वो आपकी, अपनी कभी सुनाते हैं
२०२० कई खट्टी-मीठी यादें ले के बीत गया ... जीवन जीने का नया अंदाज़
सिखा गया ... आप सब सावधान रहे, संयम बरतें ... २०२१ का स्वागत करें ... मेरी बहुत बहुत
शुभकामनायें सभी को ...
बुधवार, 9 दिसंबर 2020
मगर फिर भी वो इठलाती नहीं है ...
कोई भी बात उकसाती नहीं है
न जाने क्यों वो इठलाती नहीं है
कभी दौड़े थे जिन पगडंडियों पर
हमें किस्मत वहाँ लाती नहीं है
मुझे लौटा दिया सामान सारा
है इक “टैडी” जो लौटाती नहीं है
कहाँ अब दम रहा इन बाजुओं में
कमर तेरी भी बलखाती नहीं है
नहीं छुपती है च्यूंटी मार कर अब
दबा कर होठ शर्माती नहीं है
तुझे पीता हूँ कश के साथ कब से
तू यादों से कभी जाती नहीं है
“छपक” “छप” बारिशों की दौड़ अल्हड़
गली में क्यों नज़र आती नहीं है
अभी भी ओढ़ती है शाल नीली
मगर फिर भी वो इठलाती नहीं है
मंगलवार, 1 दिसंबर 2020
बहुत आसान है सपने चुराना ...
नया ही चाहिए कोई बहाना.
तभी फिर मानता है ये ज़माना.
परिंदों का है पहला हक़ गगन पर,
हवा में देख कर गोली चलाना.
दरो दीवार खिड़की बन्द कर के,
किसी के राज़ से पर्दा उठाना.
सृजन
होगा वहाँ हर हल में बस,
जहाँ
मिट्टी वहां गुठली गिराना.
यहाँ आँसू के कुछ कतरे गिरे थे,
यहीं होगा मुहब्बत का ठिकाना.
लहर ले जाएगी मिट्टी बहा कर,
किनारों पर संभल कर घर बनाना.
न करना ज़िक्र सपनों का किसी से,
बहुत आसान है सपने चुराना.
मंगलवार, 10 नवंबर 2020
जो कायरों से मरोगे तो कुछ नहीं होगा ...
गुलाम बन के रहोगे तो कुछ नहीं होगा
निज़ाम से जो डरोगे तो कुछ नहीं होगा
तमाम शहर के जुगनू हैं कैद में
उनकी
चराग़ छीन भी लोगे तो कुछ नहीं होगा
समूचा तंत्र है बहरा, सभी
हैं जन गूंगे
जो आफताब भी होगे तो कुछ नहीं होगा
बदल सको तो बदल दो जहाँ की तुम किस्मत
जो भीड़ बन के चलोगे तो कुछ नहीं
होगा
कलम के साथ ज़रूरी है सबकी सहभागी
नहीं जो
मिल के लड़ोगे तो कुछ नहीं होगा
जो मौत
आ ही गयी मरना मार कर दुश्मन
जो कायरों से मरोगे तो कुछ नहीं होगा
गुरुवार, 23 जुलाई 2020
हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं ...
उदासी
से घिरी तन्हा छते हैं
कई
किस्से यहाँ के घूरते हैं
परिंदों के परों पर घूमते हैं
हम अपने घर को अकसर ढूँढ़ते हैं
नहीं है इश्क पतझड़ तो यहाँ क्यों
सभी के दिल हमेशा टूटते हैं
मेरा स्वेटर कहाँ तुम ले गई थीं
तुम्हारी शाल से हम पूछते हैं
नए
रिश्तों में कितनी भी हो गर्मी
कहाँ
रिश्ते पुराने छूटते हैं
कभी तो राख़ हो जाएँगी यादें
तुम्हे सिगरेट समझ कर फूंकते हैं
लिखे क्यों जो नहीं फिर भेजने थे
दराज़ों में पड़े ख़त सोचते हैं
लगी है आज भी उन पर लिपिस्टिक
हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं
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सोमवार, 25 मई 2020
क्या सच में ...
अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ
एक तुम हो जो सुनती नहीं
हालांकि ये चाँद, सूरज ... ये भी नहीं सुनते
और हवा ...
इसने तो जैसे “इगनोरे” करने की ठान ली है
ठीक तुम्हारी तरह
धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज मेरे पहलू से
कितनी बार तो कहा है
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं
खिलता है कायनात में जगली गुलाब कहीं
उगता है रोज़ सूरज के नाम से
आकाश की बादल भरी ज़मीन पर
अरे सुनो ... कहीं तुम ही तो ...
इसलिए तो नहीं उठ जाती रोज़ मेरे पहलू से मेरे
... ?
#जंगली_गुलाब
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सोमवार, 18 मई 2020
किसका खेल
कितना कुछ होता रहता है
और सच तो ये भी है
कितना कुछ नहीं भी होता ...
फिर भी ...
बहुत कुछ जब नहीं हो रहा होता
कायनात में कुछ न कुछ ज़रूर होता रहता है
जैसे ...
मैंने डाले नहीं,
तुमने सींचे नहीं
प्रेम के बीज हैं अपने आप ही उगते रहते हैं
उठती हैं, मिटती हैं, फिर उठती हैं
लहरों की चाहत है पाना
प्रेम खेल रहा है मिटने मिटाने का खेल सदियों
से
जालसाजी कायनात की ...
कसूर तेरी आँखों का ...
या खेल .... जंगली गुलाब का ...
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शनिवार, 2 मई 2020
चाहत या सोच की उड़ान ... ?
पूछता हूँ अपने आप से ... क्या प्रेम रहा है हर वक़्त
... या इसके आवरण के पीछे छुपी रहती है शैतानी सोच ... अन्दर बाहर एक बने रहने का नाटक करता इंसान ... क्या थक कर अन्दर या बाहर के किसी एक सच को अंजाम
दे पायेगा ... सुनो तुम अगर पढ़ रही हो तो इस बात को दिल से न लगाना ... सच तो तुम जानती
ही हो ...
तुम्हें देख कर मुस्कुराता हूँ
जूड़े में पिन लगाती तुम कुछ गुनगुना रही हो
वर्तमान में रहते हुए
अदृश्य वर्तमान में उतर जाने की चाहत रोक नहीं पाता
हालांकि रखता हूँ अपना चेतन वर्तमान भी साथ
मेरे शैतान का ये सबसे अच्छा शग़ल रहा है
चेहरे पर मुस्कान लिए "स्लो मोशन" में
आ जाता हूँ तुम्हारे इतना करीब
की टकराने लगते है
तुम्हारी गर्दन के नर्म रोएं, मेरी गर्म साँसों से
ठीक उसी समय
मुन्द्वा देता हूँ नशे के आलम में डूबी तुम्हारी दो
आँखें
गाढ़ देता हूँ जूड़े में लगा पिन, चुपके से तुम्हारी
गर्दन में
यक-ब-यक लम्बे होते दो दांतों की तन्द्रा तोड़ कर
लौट आता हूँ वर्तमान में
मसले हुए जंगली गुलाब की गाढ़ी लाली
चिपक जाती है उँगलियों में ताज़ा खून की खुशबू लिए
मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ तुम्हे देख कर
जूड़े में पिन लगाती तुम भी कुछ गुनगुना रही हो
इश ... पढ़ा तो नहीं न तुमने ...
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2020
शिद्दत ...
तुम्हें सामने खड़ा करके बुलवाता हूँ कुछ प्रश्न तुमसे ... फिर
देता हूँ जवाब खुद को, खुद के ही प्रश्नों का ... हालाँकि बेचैनी फिर भी बनी रहती
है ... अजीब सी रेस्टलेसनेस ... आठों पहर ...
पूछती हो तुम ... क्यों डूबे रहते हो यादों में ... ?
मैं ... क्या करूँ
समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
(तुम उदासी ओढ़े चुप हो जाती हो, जवाब सुनने के बाद)
...
मैं कहता हूँ ... अच्छा ऐसा करो वापस आ जाओ मेरे पास
यादें खत्म हो जाएंगी खुद-ब-खुद
(क्या कहा ... संभव नहीं ...)
मैं ... चलो ऐसा करो
पतझड़ के पत्तों की तरह
जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
मुझे भी सिखा दो
ताज़ा हवा के झोंके नहीं आते थे मेरे करीब
मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया
तमाम रोशनदान बन्द हो गए थे
सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब
रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
पर रौशनी कम नहीं होती
यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं
मालुम है मुझे शराब ओर तुम्हारी मदहोशी का नशा
टूटने के बाद तकलीफ देगा
पर क्या करूँ
शिद्दत ... कमीनी कम नहीं होती
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बुधवार, 8 अप्रैल 2020
हैंग-ओवर उम्मीद का ...
एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की
बातें, जब खुद का होना भी बे-मानी हो कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र
जाती है खुद को च्यूंटी काटते ... जिन्दा हूँ, तो जिन्दा होने एहसास क्यों नहीं
होता ...
उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ
की हो सके एहसास खुद के होने का
हालाँकि करता हूँ रफू ... जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है की रोज टपक जाता है ज़िन्दगी से
उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना
सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की
और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...
#जंगली_गुलाब
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हैंग-ओवर
रविवार, 15 मार्च 2020
हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया ...
क़रीब दो महीने हो गए, अभी तक देश की मिट्टी का आनंद ले रहा हूँ ... कुछ काम तो कुछ करोना का शोर ... उम्मीद है जल्दी ही मलेशिया लौटना होगा ... ब्लॉग पर लिखना भी शायद तभी नियमित हो सके ... तब तक एक ताज़ा गज़ल ...
कई क़िस्सों को पीछे छोड़ आया
सड़क तन्हाई की दौड़ आया
शहर जिस पर तरक़्क़ी के शजर थे
तेरी पगडंडियों से जोड़ आया
किसी की सिसकियों का दर्द ले कर
गुबाड़े कुछ हँसी के फोड़ आया
तेरी यादों की गुल्लक तोड़ कर मैं
सभी रिश्ते पुराने तोड़ आया
वहाँ थे मोह के किरदार कितने
दुशाला प्रेम का मैं ओढ़ आया
भरे थे जेब में आँसू किसी के
समुन्दर मिल रहा था छोड़ आया
कभी निकलो तो ले कर अपनी कश्ती
हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया
#मद्धम_मद्धम
सोमवार, 6 जनवरी 2020
माँ - एक एहसास
एक और पन्ना कोशिश, माँ को समेटने की से ... आपका प्रेम मिल रहा है इस किताब को, बहुत आभार है आपका ... कल पुस्तक मेले, दिल्ली में आप सब से मिलने की प्रतीक्षा है ... पूरा जनवरी का महीना इस बार भारत की तीखी चुलबुली सर्दी के बीच ...
लगा तो लेता तेरी तस्वीर दीवार पर
जो दिल के कोने वाले हिस्से से
कर पाता तुझे बाहर
कैद कर देता लकड़ी के फ्रेम में
न महसूस होती अगर
तेरे क़दमों की सुगबुगाहट
घर के उस कोने से
जहाँ मन्दिर की घंटियाँ सी बजती रहती हैं
भूल जाता माँ तुझे
न देखता छोटी बेटी में तेरी झलक
या सुबह से शाम तेरे होने का एहसास कराता
अपने अक्स से झाँकता तेरा चेहरा
के भूल तो सकता था रौशनी का एहसास भी
जो होती न कभी सुबह
या भूल जाता सूरज अपने आने की वजह
ऐसी ही कितनी बेवजह बातों का जवाब
किसी के पास नहीं होता ...
#कोशिश_माँ_को_समेटने_की
रविवार, 29 दिसंबर 2019
मंगलवार, 17 दिसंबर 2019
एक पन्ना - कोशिश, माँ को समेटने की
आज अचानक ही उस दिन की याद हो आई जैसे मेरी
अपनी फिल्म चल रही हो और मैं दूर खड़ा उसे देख रहा हूँ. दुबई से जॉब का मैसेज
आया था और अपनी ही धुन में इतना खुश था, की समझ ही नहीं पाया तू क्या सोचने
लगी. लगा तो था की तू उदास है, पर शायद देख नहीं सका ...
मेरे लिए खुशी का दिन
ओर तुम्हारे लिए ...
सालों बाद जब पहली बार घर की देहरी से बाहर
निकला
समझ नहीं पाया था तुम्हारी उदासी का कारण
हालाँकि तुम रोक लेतीं तो शायद रुक भी जाता
या शायद नहीं भी रुकता
पर मुझे याद है तुमने रोका नहीं था
(वैसे व्यक्तिगत अनुभव से देर बाद समझ आया,
माँ बाप बच्चों की उड़ान में रोड़ा नहीं डालते)
सच कहूँ तो उस दिन के बाद से
अचानक यादों का सैलाब सा उमड़ आया था ज़हन में
गुज़रे पल अनायास ही दस्तक देने लगे थे
लम्हे फाँस बनके अटकने लगे थे
जो अनजाने ही जिए, सबके ओर तेरे साथ
भविष्य के सपनों पर कब अतीत की यादें हावी हो गईं
पता नहीं चला
खुशी के साथ चुपके से उदासी कैसे आ जाती है
तब ही समझ सका था मैं
जानता हूँ वापस लौटना आसान था
पर खुद-गर्जी ... या कुछ ओर
बारहाल ... लौट नहीं पाया उस दिन से
आज जब लौटना चाहता हूं
तो लगता है देर हो गई है
ओर अब तुम भी तो नहीं हो वहाँ, माँ ...
#कोशिश_माँ_को_समेटने_की
सोमवार, 2 दिसंबर 2019
किताब का एक पन्ना
“कोशिश – माँ को समेटने की” तैयार है ... कुछ ही
दिनों में आपके बीच होगी. आज एक और “पन्ना” आपके साथ साझा कर रहा हूँ ... आज सोचता
हूँ तो तेरी चिर-परिचित मुस्कान सामने आ जाती है ... मेरे खुद के चेहरे पर ...
कहते हैं गंगा मिलन
मुक्ति का मार्ग है
कनखल पे अस्थियाँ प्रवाहित करते समय
इक पल को ऐसा लगा
सचमुच तुम हमसे दूर जा रही हो ...
इस नश्वर सँसार से मुक्त होना चाहती हो
सत्य की खोज में
श्रृष्टि से एकाकार होना चाहती हो
पर गंगा के तेज प्रवाह के साथ
तुम तो केवल सागर से मिलना चाहती थीं
उसमें समा जाना चाहती थीं
जानतीं थीं
गंगा सागर से अरब सागर का सफर
चुटकियों में तय हो जाएगा
उसके बाद तुम दुबई के सागर में
फिर से मेरे करीब होंगी ...
किसी ने सच कहा है
माँ के दिल को जानना मुश्किल नहीं ...
(१३ वर्षों से दुबई रहते हुवे मन में ऐसे भाव
उठना स्वाभाविक है)
(अक्तूबर ३,
२०१२)
#कोशिश_माँ_को_समेटने_की
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