१)
जब कभी ऐसा होगा..............
ये कायनात रुक जायेगी
सांस लेती प्रकृति थम जायेगी
बहती हुयी हवा ठिठक जायेगी
आसमान पर चमकता सूरज अंधा हो जायेगा
पल इक पल को रुक जायेगा
उस पल...............
मैं चुपके से तुझे अपने हाथों में उठा लूंगा
कैद कर लूँगा तेरे मीठे स्पर्श को
२)
जब कभी ऐसा होगा..............
समुन्दर की तेज़ लहरें
पूनम के चाँद से मिलने को बेताब होंगी
चाँद भी ज़मीन के कुछ करीब होगा
उस पल............
तू चुपके से मेरी किश्ती पर चले आना
चाँद पर नानी से कह कर
एक आशियाना बनाया है मैंने
३)
जब कभी ऐसा होगा..............
ये आसमान जमीन के करीब होगा
सितारे मेरी छत को छूने लगेंगे
उस पल..................
तू चुपके से मेरे पहलू में चली आना
हाथ बढ़ा कर ये सितारे मैं तोड़ लूँगा
सजा दूंगा फिर तेरी मांग
हमेशा हमेशा के लिए
४)
जब कभी ऐसा होगा..............
तारों की छाँव में तेरी डोली सजी होगी
चाँद जाने को होगा, सूरज की प्रतीक्षा होगी
बिदाई के राग में शहनाई बज रही होगी
उस पल................
ओस बन कर मैं हरी घास पर बिखर जाऊंगा
तू चुपके से नंगे पाँव गुज़र जाना
तेरा मेरा वो अंतिम मिलन होगा
रविवार, 29 मार्च 2009
मंगलवार, 24 मार्च 2009
प्रकृति मेरे कैनवास पर
जब कभी करता हूँ कोशिश
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
मंगलवार, 17 मार्च 2009
माँ का आँचल हो गया
गुरु देव पंकज सुबीर जी की विशेष अनुकम्पा से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किये हैं. जिसने इस ग़ज़ल को पहले पढ़ा है वो अगर इसे दुबारा पढेंगे तो समझ जायेंगे की ये ग़ज़ल बहूत ही सुन्दर हो गयी है. इस ग़ज़ल के दोषों को उन्होंने इतनी बारीकी से मुझे समझाया की आज मुझे लग रहा है मैंने ग़ज़ल लेखन की तरफ एक और कदम बढा लिया.ये बात चरित्रार्थ हो गयी "गुरु बिन गत नहीं"
पावनि गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया,
शहर के फैलाव से जंगल भी घायल हो गया,
सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ,
गांव का पीपल ही जैसे मां का आंचल हो गया,
थी जिसे उम्मीद वापस लौट कर वो आएगा,
रेत पर लिखता था तेरा नाम पागल हो गया,
था कोई लोफर हवा के साथ जो उड़ता रहा,
छत मिली मेरी तो वो सावन का बादल हो गया,
कोयला था मैं, पड़ा भट्टी किनारे बेखबर,
छू गया आँखों से तेरी और काजल हो गया,
ओढ़ कर आकाश धरती को बिछाता है वो बस,
सादगी इतनी की हाय मैं तो कायल हो गया,
थी खड़ी पलकें झुकाए हाथ में थाली लिए,
देखते ही देखते मन और श्यामल हो गया,
पावनि गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया,
शहर के फैलाव से जंगल भी घायल हो गया,
सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ,
गांव का पीपल ही जैसे मां का आंचल हो गया,
थी जिसे उम्मीद वापस लौट कर वो आएगा,
रेत पर लिखता था तेरा नाम पागल हो गया,
था कोई लोफर हवा के साथ जो उड़ता रहा,
छत मिली मेरी तो वो सावन का बादल हो गया,
कोयला था मैं, पड़ा भट्टी किनारे बेखबर,
छू गया आँखों से तेरी और काजल हो गया,
ओढ़ कर आकाश धरती को बिछाता है वो बस,
सादगी इतनी की हाय मैं तो कायल हो गया,
थी खड़ी पलकें झुकाए हाथ में थाली लिए,
देखते ही देखते मन और श्यामल हो गया,
बुधवार, 11 मार्च 2009
होली की मंगल कामनाएं
आप सब को होली की मंगल कामनाएं, आप सब के जीवन में ये होली नए नए रंग लेकर आये, आप खुशियों से नाचे, झूमें और प्यार के रंगों से अपना और सबका जीवन भर दें
होली के त्यौहार में, मची हुयी हुडदंग
सारे मिल कर डाल,रहे इक दूजे पर रंग
इक दूजे पर रंग, हुवे सब लाल गुलाबी
मस्ती में झूमें सभी, जैसे मस्त शराबी
कहे "दिगम्बर" शिकवे सारे आज भुला दो
दिल से दिल मिल जाए, ऐसा रंग लगा दो
होली के त्यौहार में, मची हुयी हुडदंग
सारे मिल कर डाल,रहे इक दूजे पर रंग
इक दूजे पर रंग, हुवे सब लाल गुलाबी
मस्ती में झूमें सभी, जैसे मस्त शराबी
कहे "दिगम्बर" शिकवे सारे आज भुला दो
दिल से दिल मिल जाए, ऐसा रंग लगा दो
गुरुवार, 5 मार्च 2009
एहसास
1
चाहता हूँ
मार कर पत्थर
सुराख कर दूं सूरज में
सज़ा लूँ फिर डिबिया भर कर
कतरा कतरा रिस्ती हुई रोशनी
जब ये कायनात अंधी हो जाएगी
मैं जीता रहूँगा
अपनी डिबिया देख कर
2
जलती हुई आग
अपनी हथेली पर सज़ा
अपना ही इम्तिहान लेने को मन करता है
ये मेरा आत्मविश्वास है
या अन्जाना सा दर्द
मचल रहा है
बाहर आने को
3
बहूत दिनों से
मन कुछ उदास है
ढूंड नही पाता
जब उदासी का कारण
और उदास हो जाता है मन
लगता है उदासी भी
गणित के खेल की तरह
जुड़ती नही गुना होती है
चाहता हूँ
मार कर पत्थर
सुराख कर दूं सूरज में
सज़ा लूँ फिर डिबिया भर कर
कतरा कतरा रिस्ती हुई रोशनी
जब ये कायनात अंधी हो जाएगी
मैं जीता रहूँगा
अपनी डिबिया देख कर
2
जलती हुई आग
अपनी हथेली पर सज़ा
अपना ही इम्तिहान लेने को मन करता है
ये मेरा आत्मविश्वास है
या अन्जाना सा दर्द
मचल रहा है
बाहर आने को
3
बहूत दिनों से
मन कुछ उदास है
ढूंड नही पाता
जब उदासी का कारण
और उदास हो जाता है मन
लगता है उदासी भी
गणित के खेल की तरह
जुड़ती नही गुना होती है
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
झूमती पुरवाइयां
ब्लॉग जगत के सुपरिचित रचनाकार हमारे गुरु श्री "पंकज सुबीर जी" को देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था "भारतीय ज्ञानपीठ" ने अपनी नवलेखन पुरुस्कार योजना के तहत वर्ष 2008 के तीन श्रेष्ठ युवा कथाकारों में सम्मिलित किया है.हम सब के लिए यह गर्व की बात है. पंकज को जी इस बात के लिए बहुत बहुत बधाई.
प्रस्तुत है ये ग़ज़ल पंकज जी के नाम. वैसे आप सब को बता दूं इस ग़ज़ल को गुरुदेव ने आज ही पढने लायक बना कर भेजा है.
गूंजती थीं जिस मुहल्ले में कभी शहनाइयां
दर्द है बिखरा हुवा, बिखरी हुयी तन्हाइयां
कैसा वासंती ये मौसम अब के आया है यहां
कोयलें सहमी हैं और सहमी हुई अमराइयां
हो गए खामोश आधी रात में दीपक सभी
रात भर चलती रहीं इश्राक की पुरवाइयां
सांस पत्थर को है लेते देखना तो देख लो
तुम अजंता के बुतों में नाचती परछाइयां
बस तेरा ही नूर फैला है फिजां में हर तरफ
ये तसव्वुफ जानती हैं झूमती पुरवाइयां
झूठ का रंगीन चेहरा इस कदर छाया हुवा
आईने से मुंह छुपाती हैं यहाँ सच्चाइयां
थाह तेरे दिल की ही बस मिल न पाई है मुझे
यूं तो मैंने नाप लीं सागर की सब गहराईयां
साथ तेरा मिल गया आसान हैं अब रास्ते
थीं वगरना हर कदम पर मुश्किलें कठिनाइयां
(इश्राक - प्रभात, चमक, उषा, तसव्वुफ़ - रहस्य, गूढ़ ज्ञान)
प्रस्तुत है ये ग़ज़ल पंकज जी के नाम. वैसे आप सब को बता दूं इस ग़ज़ल को गुरुदेव ने आज ही पढने लायक बना कर भेजा है.
गूंजती थीं जिस मुहल्ले में कभी शहनाइयां
दर्द है बिखरा हुवा, बिखरी हुयी तन्हाइयां
कैसा वासंती ये मौसम अब के आया है यहां
कोयलें सहमी हैं और सहमी हुई अमराइयां
हो गए खामोश आधी रात में दीपक सभी
रात भर चलती रहीं इश्राक की पुरवाइयां
सांस पत्थर को है लेते देखना तो देख लो
तुम अजंता के बुतों में नाचती परछाइयां
बस तेरा ही नूर फैला है फिजां में हर तरफ
ये तसव्वुफ जानती हैं झूमती पुरवाइयां
झूठ का रंगीन चेहरा इस कदर छाया हुवा
आईने से मुंह छुपाती हैं यहाँ सच्चाइयां
थाह तेरे दिल की ही बस मिल न पाई है मुझे
यूं तो मैंने नाप लीं सागर की सब गहराईयां
साथ तेरा मिल गया आसान हैं अब रास्ते
थीं वगरना हर कदम पर मुश्किलें कठिनाइयां
(इश्राक - प्रभात, चमक, उषा, तसव्वुफ़ - रहस्य, गूढ़ ज्ञान)
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
दिल्ली और देहरादून में खिलती हुवे सूरज के नीचे नर्म सर्दी में गुजारे कुछ पल, गौतम जी से छोटी सी हसीन सी यादगार मुलाक़ात, समीर जी (उड़नतश्तरी वाले) से फ़ोन पर हुयी बात और भी न जाने कितने खूबसूरत लम्हों को समेटे अपने छोटे से शहर दुबई में वापस आने के बाद, पेश है ये ताज़ा ग़ज़ल गौतम जी के नाम ...........
जानता हूँ रख न पायेगा कभी हिसाब
नाप कर जो रौशनी बांटेगा आफताब
यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब
हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब
यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब
घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब
जानता हूँ रख न पायेगा कभी हिसाब
नाप कर जो रौशनी बांटेगा आफताब
यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब
हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब
यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब
घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
साए में संगीन के फूले फले
आज से पूरे एक सप्ताह के लिए छुट्टी ले रहा हूँ, दुबई की भागमभाग जिंदगी से दूर वतन की खुशबू के बीच, दिल्ली की सर्दी का आनंद लेने, हो सका तो देहरादून गौतम जी से मुलाक़ात करने ..........
जाते जाते पेश है एक ग़ज़ल, प्रकाश बादल जी के कहे अनुसार मीटर की परवाह किए बगैर, अच्छी बुरी तो आप ही जाने........
अब नही उठते हैं दिल में ज़लज़ले
पस्त हो गए हमारे होंसले
लाल पत्ते, लाल बाली गेहूं की
साए में संगीन के फूले फले
मिल गयी है न्याय की कुर्सी उसे
कर रहा अपने हक़ में फैंसले
थक गया पर साथ चलता रहूँगा
दूर तक जो साथ तू मेरे चले
रात गयी चाँद क्यों छिपता नही
सोच रहा सूरज पीपल तले
याद माँ की आ गयी विदेश में
दफअतन आँख से आंसू ढले
छाछ भी पीते हैं फूंक मार कर
दूध से हैं होठ जिन के जले
जिंदगी भर लौट कर न जाऊँगा
आज मेरा रास्ता बस रोक ले
गोलियों की बात ही समझेगे वो
गोलियों से कर रहे जो फैंसले
रेत की दीवार से ढह जायेंगे
जिस्म जिनके हो गए खोखले
जाते जाते पेश है एक ग़ज़ल, प्रकाश बादल जी के कहे अनुसार मीटर की परवाह किए बगैर, अच्छी बुरी तो आप ही जाने........
अब नही उठते हैं दिल में ज़लज़ले
पस्त हो गए हमारे होंसले
लाल पत्ते, लाल बाली गेहूं की
साए में संगीन के फूले फले
मिल गयी है न्याय की कुर्सी उसे
कर रहा अपने हक़ में फैंसले
थक गया पर साथ चलता रहूँगा
दूर तक जो साथ तू मेरे चले
रात गयी चाँद क्यों छिपता नही
सोच रहा सूरज पीपल तले
याद माँ की आ गयी विदेश में
दफअतन आँख से आंसू ढले
छाछ भी पीते हैं फूंक मार कर
दूध से हैं होठ जिन के जले
जिंदगी भर लौट कर न जाऊँगा
आज मेरा रास्ता बस रोक ले
गोलियों की बात ही समझेगे वो
गोलियों से कर रहे जो फैंसले
रेत की दीवार से ढह जायेंगे
जिस्म जिनके हो गए खोखले
रविवार, 8 फ़रवरी 2009
ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
टूटी चप्पल, चिथड़े कपड़े, हाथ पैर हैं छिले हुवे
खिचडी दाड़ी, रीति आँखें, ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
रोटी पानी, कपड़े लत्ते, बिखरा घर बिखरा आँगन
बिखरा जीवन, टूटे सपने, होठों सभी के सिले हुवे
झूठे रिश्ते, लोग पराये, मैं सच्चा झूठी दुनिया
ख़त्म हुवे सब शिकवे सारे, ख़त्म ये सारे गिले हुवे
नियम खोखले, बातें कोरी, कोरा मत, कोरा गर्जन
कोरी वाणी, कोरा दर्शन, नींव सभी के हिले हुवे
गुंडा गर्दी गली मोहल्ले,जिसकी लाठी उसकी भैंस
लूट मची है प्रजा तंत्र में, मानुस सारे पिले हुवे
मार पड़ी कमजोरों पर, चाहे कोई मज़हब हो
मंदिर मस्जिद गिरजे लगता आपस में हैं मिले हुवे
खिचडी दाड़ी, रीति आँखें, ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
रोटी पानी, कपड़े लत्ते, बिखरा घर बिखरा आँगन
बिखरा जीवन, टूटे सपने, होठों सभी के सिले हुवे
झूठे रिश्ते, लोग पराये, मैं सच्चा झूठी दुनिया
ख़त्म हुवे सब शिकवे सारे, ख़त्म ये सारे गिले हुवे
नियम खोखले, बातें कोरी, कोरा मत, कोरा गर्जन
कोरी वाणी, कोरा दर्शन, नींव सभी के हिले हुवे
गुंडा गर्दी गली मोहल्ले,जिसकी लाठी उसकी भैंस
लूट मची है प्रजा तंत्र में, मानुस सारे पिले हुवे
मार पड़ी कमजोरों पर, चाहे कोई मज़हब हो
मंदिर मस्जिद गिरजे लगता आपस में हैं मिले हुवे
सोमवार, 2 फ़रवरी 2009
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सूर्य से पहले है जिसका आगमन
स्वयं को पाने का जो करता सृजन
छू वही सकता हैं ऊंचे शिखर को
कर गुज़रने की लगी हो जब लगन
कौन सी बाधाएं रस्ता रोक लेंगी
जल रही हो मुक्ति की दिल में अगन
स्वयं को बाती बना तिल तिल जले
जिंदगी बन जायेगी उसकी हवन
मुक्त कर दो, तोड़ दो बंधन पुनः
किस के रोके रुका है बहता पवन
काल की सीमाओं में बंधा हुवा
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सत्य तो बस एक है "इदं न मम"
देह वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी गगन
स्वयं को पाने का जो करता सृजन
छू वही सकता हैं ऊंचे शिखर को
कर गुज़रने की लगी हो जब लगन
कौन सी बाधाएं रस्ता रोक लेंगी
जल रही हो मुक्ति की दिल में अगन
स्वयं को बाती बना तिल तिल जले
जिंदगी बन जायेगी उसकी हवन
मुक्त कर दो, तोड़ दो बंधन पुनः
किस के रोके रुका है बहता पवन
काल की सीमाओं में बंधा हुवा
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सत्य तो बस एक है "इदं न मम"
देह वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी गगन
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