ख़ुदा धरती को अपने नूर से जब जब सजाता है
दिशाएँ गीत गाती हैं गगन ये मुस्कुराता है
ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम
रज़ाई में छुपा सूरज अभी तक कुनमुनाता है
मुनादी हो रही है चाँदनी से रुत बदलने की
गुलाबी शाल ओढ़े आसमाँ पे चाँद आता है
पहाड़ों पर नज़र आती है फिर से रूइ की चादर
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है
फजाओं में महकती है तिरे एहसास की खुशबू
हवा की पालकी में बैठ कर मन गुनगुनाता है
झुकी पलकें खुले गेसू दुपट्टा आसमानी सा
तुझे बाहों के घेरे में लिए मन गीत गाता है
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
शनिवार, 20 नवंबर 2010
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
मुफलिसों के दर्द आंसू सिसकियाँ
बन सकी हैं क्या कभी ये सुर्खियाँ
आम जन तो हैं सदा पिसते रहे
सर्द मौसम हो य चाहे गर्मियाँ
खून कर के वो बरी हो जाएगा
जेब में रख ली हैं उसने कुर्सियाँ
चोर है इन्सां तभी तो ले गयीं
रंग फूलों का उड़ा कर तितलियाँ
आदमी का रंग ऐसा देख कर
पी गयीं तालाब सारी मछलियाँ
तुम अंधेरों से न डर जाओ कहीं
जेब में रख ली हैं मैंने बिजलियाँ
थाल पूजा का लिए जब आयगी
चाँद को आने न देंगी बदलियाँ
कह रही हैं हाले दिल अपना सनम
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
बन सकी हैं क्या कभी ये सुर्खियाँ
आम जन तो हैं सदा पिसते रहे
सर्द मौसम हो य चाहे गर्मियाँ
खून कर के वो बरी हो जाएगा
जेब में रख ली हैं उसने कुर्सियाँ
चोर है इन्सां तभी तो ले गयीं
रंग फूलों का उड़ा कर तितलियाँ
आदमी का रंग ऐसा देख कर
पी गयीं तालाब सारी मछलियाँ
तुम अंधेरों से न डर जाओ कहीं
जेब में रख ली हैं मैंने बिजलियाँ
थाल पूजा का लिए जब आयगी
चाँद को आने न देंगी बदलियाँ
कह रही हैं हाले दिल अपना सनम
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
रविवार, 14 नवंबर 2010
प्याज बन कर रह गया है आदमी
मौन स्वर है सुप्त हर अंतःकरण
सत्य का होता रहा प्रतिदिन हरण
रक्त के संबंध झूठे हो गए
काल का बदला हुवा है व्याकरण
खेल सत्ता का है उनके बीच में
कुर्सियां तो हैं महज़ हस्तांतरण
घर तेरे अब खुल गए हैं हर गली
हे प्रभू डालो कभी अपने चरण
आपके बच्चे वही अपनाएंगे
आप का जैसा रहेगा आचरण
प्याज बन कर रह गया है आदमी
आवरण ही आवरण बस आवरण
सत्य का होता रहा प्रतिदिन हरण
रक्त के संबंध झूठे हो गए
काल का बदला हुवा है व्याकरण
खेल सत्ता का है उनके बीच में
कुर्सियां तो हैं महज़ हस्तांतरण
घर तेरे अब खुल गए हैं हर गली
हे प्रभू डालो कभी अपने चरण
आपके बच्चे वही अपनाएंगे
आप का जैसा रहेगा आचरण
प्याज बन कर रह गया है आदमी
आवरण ही आवरण बस आवरण
रविवार, 7 नवंबर 2010
ग़ज़ल ...
पंकज जी के गुरुकुल में तरही मुशायरा नयी बुलंदियों को छू रहा है ... प्रस्तुतत है मेरी भी ग़ज़ल जो इस तरही में शामिल थी ... आशा है आपको पसंद आएगी ....
महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी
तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी
सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा
दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी
महबूब तेरे अक्स में है हीर लैला सोहनी
मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी
इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला
जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी
तुम आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में
ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी
नज़रें झुकाए तू खड़ी है थाल पूजा का लिए
तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी
ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया
काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी
महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी
तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी
सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा
दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी
महबूब तेरे अक्स में है हीर लैला सोहनी
मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी
इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला
जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी
तुम आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में
ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी
नज़रें झुकाए तू खड़ी है थाल पूजा का लिए
तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी
ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया
काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी
मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010
कहने को दिल वाले हैं ...
गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किए हैं .... ग़ज़ल बहर में आ गयी है अब ... आशा है आपको पसंद आएगी .....
छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं
जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं
अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं
खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं
जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं
न्योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं
कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं
छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं
जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं
अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं
खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं
जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं
न्योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं
कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं
मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना ...
प्रस्तुत है आज एक ग़ज़ल गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से सजी ....
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
अच्छा ... आप भी न ...
अच्छा ... आप भी न ...
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
बुधवार, 29 सितंबर 2010
उफ़ .... तुम भी न
पता है
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ....
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ....
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
क्षणिकाएँ
१) रेखाएँ
हर नये दर्द के साथ
बढ़ जाती है
नयी रेखा हाथ में
और लोग कहते हैं
हाथ के रेखाओं में
भविष्य छिपा है ...
२) चाँद
आसमान में
अटका
तारों में
भटका
सूरज के आते ही
खा गया
झटका
३)
साँसों के साथ खींच कर
दिल में रख लूँगा तुझे
सुना है
खून के कतरे
फेफड़ों से हो कर
दिल में जाते हैं
हर नये दर्द के साथ
बढ़ जाती है
नयी रेखा हाथ में
और लोग कहते हैं
हाथ के रेखाओं में
भविष्य छिपा है ...
२) चाँद
आसमान में
अटका
तारों में
भटका
सूरज के आते ही
खा गया
झटका
३)
साँसों के साथ खींच कर
दिल में रख लूँगा तुझे
सुना है
खून के कतरे
फेफड़ों से हो कर
दिल में जाते हैं
सोमवार, 13 सितंबर 2010
बीती यादें ...
अक्सर
गुज़रे हुवे वक़्त की सतह पर
तेरी यादों की काई टिकने नही देती
एक बार फिसलने पर
फिसलता चला जाता हूँ
खुद को समेटने की कोशिश में
और बिखर जाता हूँ
बीते लम्हों के घाव
पूरे जिस्म पर उभर आते हैं
बीती यादों का जंगल
निकलने नही देता है
वर्तमान में जीने की कोशिश
तेरा ख्वाब रोक देता है
उंगलियों की पकड़
मौका पकड़ने नही देती
बाहों में कोई ख्वाब
जकड़ने नही देती
घर की हर चौखट पर
तेरी यादों की दीमक रेंग रही हैं
बीते लम्हों की सीलन
दीवारों पर उतर आई है
अगली बरसात से पहले
हर कमरे को धूप लगाना चाहता हूँ
बरसों से जमी काई
खुरच देना चाहता हूँ
हर साल की तरह अपने आप से
नया अनुबंध करना चाहता हूँ
इक नया ख्वाब बुनना चाहता हूँ
गुज़रे हुवे वक़्त की सतह पर
तेरी यादों की काई टिकने नही देती
एक बार फिसलने पर
फिसलता चला जाता हूँ
खुद को समेटने की कोशिश में
और बिखर जाता हूँ
बीते लम्हों के घाव
पूरे जिस्म पर उभर आते हैं
बीती यादों का जंगल
निकलने नही देता है
वर्तमान में जीने की कोशिश
तेरा ख्वाब रोक देता है
उंगलियों की पकड़
मौका पकड़ने नही देती
बाहों में कोई ख्वाब
जकड़ने नही देती
घर की हर चौखट पर
तेरी यादों की दीमक रेंग रही हैं
बीते लम्हों की सीलन
दीवारों पर उतर आई है
अगली बरसात से पहले
हर कमरे को धूप लगाना चाहता हूँ
बरसों से जमी काई
खुरच देना चाहता हूँ
हर साल की तरह अपने आप से
नया अनुबंध करना चाहता हूँ
इक नया ख्वाब बुनना चाहता हूँ
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