सोमवार, 5 अक्तूबर 2020
शुक्रवार, 25 सितंबर 2020
माँ ...
आज फिर २५ सितम्बर है ... सोचता हूँ, तू आज होती तो पता नहीं कितनी कतरनें अखबार की काट-काट के अपने पास रक्खी होतीं ... सब को फ़ोन कर-कर के सलाह देती रहती ये कर, वो कर ... ये न कर, वो न कर, बचाव रख करोना से ... सच कहूँ तो अब ये बातें बहुत याद आती हैं ... शायद पिछले आठ सालों में ... मैं भी तो बूढा हो रहा हूँ ... और फिर ... बच्चा तो तभी रह पाता जो तू होती मेरे साथ ...
शाम होते ही अगरबत्ती जला देती है माँ.घर के हर कोने को मन्दिर सा बना देती है माँ.
मुश्किलों को ज़िन्दगी में हँस के सहने का हुनर,डट के डर का सामना करना सिखा देती है माँ .
जान जाती है बिना पूछे ही दिल का दर्द सब,नीन्द कोसों दूर हो चाहे सुला देती है माँ.
आज भी जल्दी हो जाना, माँ से कह देता हूँ मैं,वक़्त की पाबन्द है, मुझको उठा देती है माँ.
घर में नौकर भी है, पत्नी भी है, फिर भी आदतन, रोज आटा गूंथ के सब्जी चढ़ा देती है माँ.
सोमवार, 21 सितंबर 2020
उफ़ .... तुम भी न
पता है
सोमवार, 14 सितंबर 2020
हम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे ...
हम सवालों के जवाबों में ही बस उलझे रहे ,
प्रश्न अन-सुलझे नए वो रोज़ ही बुनते रहे.
हम उदासी के परों पर दूर तक उड़ते रहे,
बादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे .
रोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे.
यूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे.
सोमवार, 7 सितंबर 2020
उफ़ शराब का क्या होगा ...
सच के ख्वाब का क्या होगा
इन्कलाब का क्या होगा
आसमान जो ले आये
आफताब का क्या होगा
तुम जो रात में निकले हो
माहताब का क्या होगा
इस निजाम में सब अंधे
इस किताब का क्या होगा
मौत द्वार पर आ बैठी
अब हिसाब का क्या होगा
साथ छोड़ दें गर कांटे
फिर गुलाब का क्या होगा
है सरूर
इन आँखों में
उफ़ शराब
का क्या होगा
सोमवार, 31 अगस्त 2020
तेरा जाना ट्रिगर है यादों का बंधन
सिक्कों का कुछ चाँद सितारों का बंधन.
चुम्बक है पर तेरी बाहों का बंधन.
दिन में भी तो चाँद नज़र आ जाता है,
इसने कब माना है रातों का बंधन.
तेरी आहट जैसे ही दरवाज़े पर,
खोल दिया बादल ने बूंदों का बंधन.
जो करना है अभी करो, बस अभी करो,
किसने जाना कब तक साँसों का बंधन.
तुमसे रौनक, तुमसे
रोटी, सब्जी, दाल,
वरना ये घर चार दीवारों का बंधन.
सूरज की दस्तक को कब तक ठुकराते,
टूट गया सपनों की बातों का बंधन.
कब तक तेरा साथ, वक़्त
का पता नहीं,
तेरा जाना ट्रिगर है यादों का बंधन.
सोमवार, 24 अगस्त 2020
कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
रात जागी तो कान में बोली
इस अँधेरे की अब चली डोली
बंद रहना ही इसका अच्छा था
राज़ की बात आँख ने खोली
दोस्ती आये तो मगर कैसे
दुश्मनी की गिरह नहीं खोली
तब से चिढती है धूप बादल से
नींद भर जब से दो-पहर सो ली
तब भी रोई थी मार के थप्पड़
आज माँ याद कर के फिर रो ली
खून सैनिक का तय है निकलेगा
इस तरफ उस तरफ चले गोली
जो भी माँगा वही मिला तुझसे
कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली
सोमवार, 17 अगस्त 2020
एक बुग्नी फूल सूखा डायरी ...
धूप कहती है निकल के दें … न दें
रौशनी हर घर को चल के दें … न दें
साहूकारों की निगाहें कह रहीं
दाम पूरे इस फसल के दें … न दें
तय अँधेरे में तुम्हें करना है अब
जुगनुओं का साथ जल के दें … न दें
बात वो सच की करेगा सोच लो
आइना उनको बदल के दें … न दें
फैंसला लहरों को अब करना है ये
साथ किश्ती का उछल के दे ... न दें
सच है मंज़िल पर गलत है रास्ता
रास्ता रस्ता बदल के दे ... न दें
एक बुग्नी, फूल सूखा, डायरी
सब खज़ाने हैं ये कल के दे ... न दें
सोमवार, 10 अगस्त 2020
हाथ खेतों की धान होते हैं
वो जो कड़वी ज़ुबान होते हैं,
एक तन्हा मचान होते हैं.
चुप ही रहने में है समझदारी,
कुछ किवाड़ों में कान होते हैं.
एक दो, तीन चार, बस भी करो,
लोग चूने का पान होते हैं.
उम्र है
लोन, सूद हैं सासें,
अन्न-दाता, किसान होते हैं.
गोलियाँ,
गालियाँ, खड़े तन कर,
फौज के ही जवान होते हैं.
एक टूटी सी तान होते हैं.
हाथ खेतों की धान होते हैं.
सोमवार, 3 अगस्त 2020
उसी लम्हे की बस तस्वीर है आँखों में अपनी
अधूरी ख्वाहिशें रहती हैं दरवाज़ों में अपनी
तभी तो ज़िन्दगी जीते हैं सब टुकड़ों में अपनी
तू यूँ ही बोलना मैं भी फ़कत सुनता रहूँगा
सुनो शक्कर ज़रा कम डालना बातों में अपनी
अभी तो रात ने दिन का शटर खोला नहीं है
चलो इक नींद तो लेने दो तुम बाहों में अपनी
कभी गुस्सा, झिझकना, रूठना, फिर मान जाना
हमेशा बोलती रहती हो तस्वीरों में अपनी
कहीं कमज़ोर ना कर दें बुलंदी के इरादे
समुन्दर रोक के रखना ज़रा पलकों में अपनी
ज़रुरत जब हुई महसूस हमको ज़िन्दगी में
दुआएं दोस्तों की आ गई खातों में अपनी
कई अलफ़ाज़ जब मुंह मोड़ लेते हैं बहर से
तुम्हारा नाम लिख देता हूँ बस ग़ज़लों में अपनी
सुनो इस पेड़ को मत काटना जीते जी अपने
परिंदे छुप के रहते हैं यहाँ शाखों में अपनी
झुकी पलकें दुपट्टा आसमानी चाल अल्हड़
उसी लम्हे की बस तस्वीर है आँखों में अपनी